2 अगस्त 2022/ श्रावण शुक्ल पंचमी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी
मरुभूति-से बना वज्रघोष, हाथी फिर तीसरे भव में स्वर्ग फिर चौथे में अग्निवेग, फिर 5वें में स्वर्ग से चक्रवर्ती – वज्रनाभि से अहमिन्द्र और अब 8वें भव में अयोध्या नगरी के महाराजा वज्रबाहु की महारानी प्रभाकरी के आनंदकुमार। नाम से अति सुंदर, पराक्रमी ध्रैर्यवान पुत्र के रूप में अवतरित होते हैं। वे बनते हैं महामण्डलीक राजा, चक्रवर्ती से एक पद कम। राजसभा में मंत्री ने एक बार नंदीश्वर पूजा का महत्व बताया, बस पूरे नगर में पूजा महोत्सव आयोजन किया। तब उनके मन में एक संशय हुआ, उसे दूर करने पहुंच गये वहां मंदिर में विराजमान मुनिराज विपुलमति के पास। उनका प्रणाम कर अपना संशय पूछा- मुनिराज ये प्रतिमा या तो धातु की होती है या पाषाण की फिर यह अचेतन प्रतिमा, चेतन प्राणियों को पुण्य का फल कैसे देती है?
मुनिराज ने उनका संशय दूर करते हुए कहा यह बिल्कुल सही है कि भव्य जीवों को जिन प्रतिमा की भक्ति महान पुण्य फल देने वाली होती है। कोई कारण पाकर ही मनुष्य के शुभ-अशुभ भाव होते हैं और उन्हीं से पुण्य पाप का बंध होता है। जैसे स्फटिक पाषाण, लाल रंग के संयोग से लाल कांति को धारण करता है। राजा के मन में यह बात उतरे, इसके लिये उन्होंने एक दृष्टांत बताया क्यों कि किस्से, कहानियों से गंभीर बात भी सरलता से समझ आ जाती है।
नगर की एक सुंदर वेश्या अल्पायु में मर गई, उसका शव श्मशान में रखा गया। अब उसमें कोई चेतनता नहीं, कुछ नहीं कर सकती। पर वहां खड़ा एक व्याभिचारी उसको घूरते विचार रहा था कि काश यह जीवित होती तो मैं अपनी काम वासना को शांत कर लेता।
उधर एक कुत्ता भी जीभ लपलपाते घूर रहा था दूर से। पता नहीं क्यों ये आदमी इसको जला रहे हैं, यूं ही छोड़ देते, यह मेरे लिये कितना सुंदर भोजन बनती?
एक लोभी सौदागर भी था वहां, वो सोच रहा था, अरे ये मर गई, अगर नहीं मरी होती, इस की तो बड़ी कीमत मिलती।
श्मशान में तपस्या कर रहे एक साधु ने जब उस वेश्या के शव को देखा तो मन में विचार किया क्या जीवन है, इतना दुर्लभ मनुष्य भव पाकर भी तप करके जीवन क्यों इसने धन्य नहीं किया।
चारों को अपने-अपने भावों का फल मिलता है, व्यसनी पुरुष काम वेग से नरक गया, कुत्ता भूख को तड़पने वाला तिर्यंच बना, सौदागर भी नरक को गया और साधु स्वर्ग गया। घटना व दृश्य समान था, पर चारों ने अपने-अपने भावों से अलग -अलग फल पाया। यही अंतरंग का भाव कर्म बंध कराता है। जिन भावों से पुण्यों का बंध होता है। भगवान दर्पण के समान रागद्वेष रहित है, भगवान सुख दु:ख नहीं देते, पर भावों से हम सब कुछ पाते हैं। जो गुण भगवान में कहे गये हैं, वही जिन प्रतिमा में भी पाये जाते हैं। यद्यपि वह प्रतिमा अचेतन है, तो भी अंतरंग में भगवान के वीतराग, शांत और शुद्ध स्वरुप का विचार करने से शुभ भावों का कारण है। जैसे चिंतामणि रत्न मन चाहे फल देने वाला होता है, उसी तरह अचेतन जिन बिंब भी इच्छाओं को पार करने वाला है। प्रतिमा का पूजन पापों को नाश करने वाली है। कल्पवृक्ष के समान जिनबिम्ब फल देता है, मणि, मंत्र, औषधि, आदि प्रत्यक्ष जड़ रूप हैं तो भी विष, रोगादि दूर करते हैं।
शायद इसमें हमारा-आपका भी बहुत बड़ा संशय दूर हुआ होगा, कि जो न देता है, न लेता है, हाथ पर हाथ रख कर बैठी जिन प्रतिमा कितना कल्याण कर सकती है।