आचार्य श्री विद्यासागर जी ऋषिराज-केवल उपदेश,कम बोलते-सुनते ज्यादा, करवट नहीं,आलोचना नहीं

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ऐंसे हैं हमारे आचार्य श्री विद्यासागर जी ऋषिराज
आदेश नहीं देते-केवल उपदेश देते हैं।
कम बोलते हैं-सुनते ज्यादा है।
दिन में शयन नहीं करते।
मीठा ग्रहण नहीं करते-पर मीठा बोलते हैं।
दिन में एक बार ही खड़े होकर भोजन ग्रहण करते हैं।
हरी सब्जी ग्रहण नहीं करते।
फल ग्रहण नहीं करते।
नमक ग्रहण नहीं करते।
दूध ग्रहण नहीं करते।
खारक को छोड़कर अन्य डॉयफ्रूट ग्रहण नहीं करते।
चटाई पर नहीं सोते।
केवल लकड़ी के पाटा पर सोते हैं।
पूरी रात करवट नहीं लेते।
केवल अधिकतम 4 घण्टे ही निद्रा लेते हैं।
कभी थूंकते नहीं।
कभी सुंगन्ध हो या कहीं दुर्गंध हो मुहं नहीं सिकोड़ते।
कार्यक़म का चातुर्मास का वचन नहीं देते।
विहार की जानकारी नहीं देते।
आयोजन की जानकारी नहीं देते।
शाम की सामयिक से सुबह तक स्थाई एक लकड़ी के पाटे पर हो जाते हैं गमन नहीं करते।
अपने नियम और आवयश्क के पालन करने में सजग रहते हैं कभी लंबित नहीं करते।
असंयमी व्यक्ति को कुछ रखने या उठाने का आदेश नहीं देते।
स्वयं के लिए जरूरी वस्तुओं पेन कापी पुस्तक आदि की मांग नहीं करते।
व्यक्तियों द्वारा शास्त्र प्रदान करने पर पहले नमस्कार करते हैं।
जब कोई गुरु जी से नियम लेता है तो स्वयं भी कायोत्सर्ग करते हैं।
कभी किसी की निंदा आलोचना नहीं करते।
कभी किसी राजनीतिक बात को नहीं करते।
कभी किसी पर क्रोध नहीं करते।
अपने प्रवचन में किसी पर कभी कटाक्ष नहीं करते।
देश और संस्कृति की रक्षा के लिए सदैव चिंतित रहते है और प्रशासनिक लोगों को सदैव इस विषय में उपदेश देते हैं।
किसी वस्तु का संग्रह नहीं करते।
बड़े से बड़े कार्य आपके आशीर्वाद से हो जाते हैं मगर आप स्वयं कर्ताबुद्धि नहीं रखते।
किसी भी क्षेत्र या स्थान पर स्वामित्वभाव नहीं रखते।
शिथलचार का समर्थन नहीं करते।
अपना एक मिनिट भी अपव्यय नहीं करते।
किसी कार्यक्रम की रूपरेखा नहीं बनाते।
जीवन भर अस्पताल-वाहन-या शल्य चिकित्सा का त्याग।
एक बार किसी से बात कर लें तो उसे कभी नहीं भूलते।
किसी स्थान को कभी नहीं भूलते।
ख्याति-निज पूजा-लाभ-सत्कार-आदि से दूर रहते हैं
सर्वशक्तिमान होकर भी स्वयं को लघु ही समझते हैं और बोलते हैं।
2 माह में हर हाल में केशलंच करते हैं (अर्थात सिर दाड़ी-मूंछ के बालों को उखाड़कर फेंकते हैं कैंची या ब्लेड का जैन सन्त उपयोग नहीं करते)
सदा अपने गुरु जी के प्रति स्वयं कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।
उन महायोगी के चरणों में शत शत नमोस्तु।
:-आशीष श्री जी