जीवन में कई बार उपसर्ग करते रहे सर्प, पर अंतिम संस्कार में आचार्य श्री शांति सागर जी की चिता की प्रदक्षिणा करना नहीं भूले

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कुंथलगिरि ता. 24-08-1955 , स्वस्ति श्री चारित्र चक्रवर्ती १०८ आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की आज्ञानुसार यह आचार्यपद प्रदान पत्र लिखा जाता है। ‘‘हमने प्रथम भाद्रपद कृष्ण ११ रविवार ता. 24-08-1955 से सल्लेखना व्रत लिया है। अतः दिगम्बर जैनधर्म और श्री कुन्दकुन्दाचार्य परंपरागत दिगम्बर जैन आम्नाय के निर्दोष एवं अखण्डरीत्या संरक्षण तथा संवर्धन के लिए हम आचार्य पद प्रथम निग्र्रन्थ शिष्य श्री वीरसागर जी मुनिराज को आशीर्वादपूर्वक आज प्रथम भाद्रपद शुक्ला सप्तमी विक्रम संवत् दो हजार बारह बुधवार के दिन त्रियोग शुद्धिपूर्वक संतोष से प्रदान करते हैं। आचार्य महाराज ने पूज्य श्री वीरसागर जी महाराज के लिए इस प्रकार आदेश दिया है।

इस पद को ग्रहण करके तुमको दिगम्बर जैनधर्म तथा चतुर्विध संघ का आगमानुसार संरक्षण तथा संवर्धन करना चाहिए। ऐसी आचार्य महाराज की आज्ञा है। आचार्य महाराज ने आपको शुभाशीर्वाद कहा है।

इति वर्धताम् जिनशासनम्
लिखी-गेंदनमल बम्बई-त्रिबार नमोस्तु
लिखी-चंदूलाल ज्योतिचन्द बारामती-त्रिबार नमोस्तु

उपर्युक्त आचार्य पद प्रदान पत्र पढ़ने के बाद श्री शिवसागर मुनिराज ने उठकर पूज्य श्री आचार्य शांतिसागर महाराज जी द्वारा भेजे गये पिच्छी एवं कमंडलु को पूज्य वीरसागर जी मुनिराज के कर कमलों में प्रदान किया। सर्वत्र सभा में आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज की जय-जयकार गूँज उठी। इसके पूर्व श्री वीरसागर जी ने कभी भी अपने को आचार्य शब्द से संबोधित नहीं करने दिया था। सन् १९५५, १८ सितम्बर द्वितीय भादों सुदी रविवार प्रातः ६ बजकर ४० मिनट पर आचार्य श्री ने ‘‘ॐ सिद्धाय नमः’’ मंत्र का उच्चारण करते हुए इस नश्वर शरीर को छोड़ दिया। उसके पूर्व उन्होंने उस कुटी के अंदर ही भगवान् की प्रतिमा का अभिषेक देखा था और प्रतिमाजी के चरण स्पर्श कर अपने मस्तक पर लगाये थे। ऐसा अन्दर रहने वालों ने बताया था। इसके बाद कुछ देर तक कुटी के अन्दर और बाहर भी णमोकार मंत्र की ध्वनि चलती रही थी। एक घण्टे बाद आचार्यश्री के पार्थिव शरीर को लाकर बाहर एक ऊँचे मंच पर विराजमान कर दिया गया।

पद्मासन मुद्रा में विराजमान वह शरीर ऐसा लगता था मानो अभी सजीव ही आचार्यश्री ध्यान में मग्न हैं। सभी साधु-साध्वी ने मिलकर सिद्ध, श्रुत, योग और आचार्य भक्ति पढ़कर उस शरीर की वंदना की। पुनः उस शरीर को पालकी में विराजमान किया गया और पर्वत के नीचे लाकर जुलूस यात्रा निकाली गई। तत्पश्चात् मध्याह्न में पर्वत पर ही एक स्थान पर भट्टारक लक्ष्मीसेन जी ने निषद्यास्थान बना रखा था। वहाँ लाकर आचार्यश्री के अभिषेक के लिए बोली ।

अनंतर हजारों नारियल, गोले, चंदन और घी डालकर इस पौद्गलिक शरीर को भस्मसात् कर दिया गया। इस शरीर को स्थापित करने पर भी वहाँ सर्पराज आया था और चिता के जलते समय भी आकर भीड़ के छट जाने पर चिता की प्रदक्षिणा देकर चला गया था। मुनि के प्राण निकल जाने के बाद भी उस पार्थिव शरीर को पूज्य माना है और उसे भक्तियाँ पढ़कर वंदना करने के विधान आचारसार, मूलाचार, अनगारधर्मामृत१ आदि ग्रन्थों में हैं। धवला ग्रन्थ में भी इस अचेतन शरीर को द्रव्य मंगल२ कहा गया है।