दिगम्बर साधु सन्त परम्परा में वर्तमान युग में अनेक तपस्वी, ज्ञानी ध्यानी सन्त हुए। उनमें आचार्य शान्तिसागरजी महाराज एक ऐसे प्रमुख साधु श्रेष्ठ तपस्वी रत्न हुए हैं, जिनकी अगाध विद्वता, कठोर तपश्चर्या, प्रगाढ़ धर्म श्रद्धा, आदर्श चरित्र और अनुपम त्याग ने धर्म की यथार्थ ज्योति प्रज्वलित की। आपने लुप्तप्राय, शिथिलाचारग्रस्त मुनि परम्परा का पुनरुद्धार कर उसे जीवन्त किया, यह निग्रन्थ श्रमण परम्परा आपकी ही कृपा से अनवरत रूप से आज तक प्रवाहमान है।
जन्म दक्षिण भारत के प्रसिद्ध नगर बेलगाँव जिला चिकोड़ी तालुका (तहसील) में भोजग्राम है। भोजग्राम के समीप लगभग चार मील की दूरी पर विद्यमान येलगुल गाँव में नाना के घर आषाढ़ कृष्णा 6, विक्रम संवत् 1929 सन् 1872 बुधवार की रात्रि में शुभ लक्षणों से युक्त बालक सातगौड़ा का जन्म हुआ था। गौड़ा शब्द भूमिपति-पाटिल का द्योतक है। पिता भीमगौड़ा और माता सत्यवती के आप तीसरे पुत्र थे इसी से मानो प्रकृति ने आपको रत्नत्रय और तृतीय रत्न सम्यकू चारित्र का अनुपम आराधक बनाया ।
बचपन सातगौड़ा बचपन से ही वैरागी थे। बच्चों के समान गन्दें खेलों में उनकी कोई रूचि नहीं थी। वे व्यर्थ की बात नहीं करते थे। पूछने पर संक्षेप में उत्तर देते थे। लौकिक आमोद-प्रमोद से सदा दूर रहते थे, धार्मिक उत्सवों में जाते थे। बाल्यकाल से ही वे शान्ति के सागर थे। छोटी सी उम्र में ही आपके दीक्षा लेने के परिणाम थे परन्तु माता-पिता ने आग्रह किया कि बेटा! जब तक हमारा जीवन है तब तक तुम दीक्षा न लेकर घर में धर्मसाधना करो। इसलिए आप घर में रहे।
व्यवसाय मुनियों के प्रति उनकी अटूट भक्ति थी। वे अपने कन्धे पर बैठाकर मुनिराज को दूधगंगा तथा वेदगंगा नदियों के संगम के पार ले जाते थे। वे कपड़े की दुकान पर बैठते थे, तो ग्राहक आने पर उसी से कहते थे कि-कपड़ा लेना है तो मन से चुन लो, अपने हाथ से नाप कर फाड़ लो और बही में लिख दी। इस प्रकार उनकी निस्पृहता थी। आप कभी भी अपने खेतों में से पक्षियों को नहीं भगाते थे। बल्कि खेतों के पास पीने का पानी रखकर स्वयं पीठ करके बैठ जाते थे। फिर भी आपके खेतों में सबसे अधिक धान्य होता था। वे कुटुम्ब के झंझटों में नहीं पड़ते थे। उन्होंने माता-पिता की खूब सेवा की और उनका समाधिमरण कराया।
संयम पथ माता-पिता के स्वर्गस्थ होते ही आप गृह विरत हो गये एवं मुनिश्री देवप्पा स्वामी से 41 वर्ष की आयु में कर्नाटक के उत्तूर ग्राम में ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशी सन् 1913 को क्षुल्लक के व्रत अंगीकार किए। आपका नाम शांतिसागर रखा गया। क्षुल्लक अवस्था में आपको कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था, क्योंकि तब मुनिचर्या शिथिलताओं से परिपूर्ण थी। साधु आहार के लिए उपाध्याय द्वारा पूर्व निश्चित गृह में जाते थे। मार्ग में एक चादर लपेटकर जाते थे आहार के समय उस वस्त्र को अलग कर देते थे आहार के समय घण्टा बजता रहता था जिससे कोई विध्न न आए।
महाराज ने इस प्रक्रिया को नहीं अपनाया और आगम की आज्ञानुसार चर्या पर निकलना प्रारम्भ किया। गृहस्थों को पड़गाहन की विधि ज्ञात न होने से वे वापस मंदिर में आकर विराज जाते इस प्रकार निराहार 4 दिन व्यतीत होने पर ग्राम में तहलका मच गया तथा ग्राम के प्रमुख पाटील ने कठोर शब्दों में उपाध्याय को कहा-शास्त्रोक्त विधि क्यों नहीं बताते ? क्या साधु को निराहार भूखा मार दोगे! तब उपाध्याय ने आगमोक्त विधि बतलाई एवं पड़गाहन हुआ।
नेमिनाथ भगवान के निर्माण स्थान गिरनार जी की वंदना के पश्चात् इसकी स्थायी स्मृति रूप अपने ऐलक दीक्षा ग्रहण की ऐलक रूप में आपने नसलापुर में चतुर्मास किया वहाँ से चलकर ऐनापुर ग्राम में रहे। उस समय यरनाल में पञ्चकल्याणक महोत्सव (सन् 1920) होने वाला था वहाँ जिनेन्द्र भगवान के दीक्षा कल्याणक दिवस पर आपेन अपने गुरुदेव देवेन्द्रकीर्ति जी से मुनिदीक्षा ग्रहण की। समडोली में नेमिसागर जी की ऐलक दीक्षा व वीरसागर जी की मुनि दीक्षा के अवसर पर समस्त संघ ने महाराज को आचार्य पद (सन् 1924) से अलंकृत कर अपने आप को कृतार्थ किया। गजपंथा में चतुर्मास के बाद सन् (1934) पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव हुआ। इस अवसर पर उपस्थित धार्मिक संघ ने महाराज को चारित्र चक्रवर्ती पद से अलंकृत किया।
सल्लेखना जीवन पर्यन्त मुनिचर्या का निर्दोष पालन करते हुए 84 वर्ष की आयु में दृष्टि मंद होने के कारण सल्लेखना की भावना से आचार्य श्री सिद्धक्षेत्र कुंथलगिरी जी पहुँचे। वहाँ पर उन्होंने 13 जून को विशाल धर्मसभा के मध्य आपने सल्लेखना धारण करने के विचारों को अभिव्यक्त किया। 15 अगस्त को महाराज ने आठ दिन की नियम-सल्लेखना का व्रत लिया जिसमें केवल पानी लेने की छूट रखी। 17 अगस्त को उन्होंने यम सल्लेखना या समाधिमरण की घोषणा की तथा 24 अगस्त को अपना आचार्य पद अपने प्रमुख शिष्य श्री १०८ वीरसागर जी महाराज को प्रदान कर घोषणा पत्र लिखवाकर जयपुर (जहाँ मुनिराज विराजमान थे) पहुँचाया। आचार्य श्री ने ३६ दिन की सल्लेखना में केवल १२ दिन जल ग्रहण किया।
१८ सितम्बर १९५५ को प्रातः ६.५० पर ॐ सिद्धोऽहं का ध्यान करते हुए युगप्रवर्तक आचार्यं श्री शान्तिसागर जी ने नश्वर देह का त्याग कर दिया।
संयम-पथ पर कदम रखते ही आपके जीवन में अनके उपसर्ग आये जिन्हें समता पूर्वक सहन करते हुए आपने शान्तिसागर नाम को सार्थक किया।
कुछ उपसर्गों एवं परीषहों की संक्षिप्त झलकियाँ इस प्रकार हैं –
. क्षुल्लक दशा मे कोगनोली के मंदिर में ध्यानस्थ शान्तिसागर जी के शरीर से विशाल विषधर लिपट गया। बहुत देर तक क्रीड़ा करने के पश्चात् शांत भाव से वापस चला गया।
मध्याह्न का समय था कोन्नूर की गुफा में महाराज सामायिक कर रहे थे एक उड़ने वाला सर्प आया और महाराज की जंघाओं के बीच छिप गया। वह लगभग तीन घंटे तक उपद्रव करता रहा। लेकिन आचार्य श्री ने अपनी स्थिर मुद्रा को भंग नहीं किया।
– द्रोणगिरी के पर्वत पर रात्रि में महाराज जब ध्यान करने बैठे तभी एक सिंह आ गया वह प्रात: लगभग 8-9 बजे तक महाराज के सामने ही बैठा रहा। इस प्रकार मुक्तागिरी पर्वत पर भी जब महाराज ध्यान में रहते थे, शेर झरने पर पानी पीने आ जाता था। आचार्यश्री का कहना था कि भय किस बात का? यदि वह पूर्व का बैरी न हो और हमारी ओर से कोई बाधा या आक्रमण न हो तो वह क्यों आक्रमण करेगा? बिना किसी भय के आत्मलीन रहते थे।
-mकोन्नूर के जंगल में महाराज धूप में बैठकर सामायिक कर रहे थे, इतने में एक बड़ा सा कीड़ा उनके पास आया और उनके पुरुष चिह्न से चिपट कर वहाँ का रक्त-चूसने लगता है। खून बहने लगा किन्तु महाराज डेढ़ घण्टे तक अविचल ध्यान में बैठे रहे।
जंगल के मंदिर में ध्यान करते वक्त असंख्य चीटियाँ उनके शरीर पर चढ़ गई एवं देह के कोमल अंग-उपांग को एक-दो घंटे ही नहीं सारी रात खाती रहीं तब वे महापुरुष साम्य भाव से परीषह सहन करते रहे।
– एक अविवेकी श्रावक जो कपड़े से गर्म दूध का बर्तन पकड़े हुए था उसने वह उबलता दूध महाराज की अंजुलि में डाल दिया। उष्णता की असह्य पीड़ा से महाराज की अंजुलि छूट गई और वे नीचे बैठ गये, किन्तु उनकी मुख मुद्रा पर क्रोध की एक रेखा तक नहीं उभरी।
श्रावक की अज्ञानता के कारण नौ दिन तक पर्याप्त जल नहीं मिला। जिसके कारण उनकी छाती पर फफोले पड़ गए पर वे गंभीर और शांत बने रहे। दसवें दिन मात्र जल लेकर ही बैठ गए। दस-बारह वर्ष तक महाराज दूध और चावल ही मात्र लेते रहे। एक दिन किसी श्रावक ने पूछा-महाराज आप और कुछ आहार में क्यों नहीं लेते, तब महाराज बोले-जो आप देते हैं वही मैं लेता हूँ। दूसरे दिन श्रावकों ने दाल रोटी आदि सामग्री देनी चाही तो भी महाराज ने नहीं ली। पुन: पूछने पर बताया कि आटा, मसाला कब पिसा हुआ था? रात्रि में पिसा हुआ अन्न रात्रि भोजन के दोष का कारण बनता है। अत: पुन: मर्यादित भोजन प्राप्त होने पर ग्रहण करने लगे।
– आचार्य श्री ने गृहस्थ अवस्था में ही 38 वर्ष की आयु में घी-तेल का आजीवन त्याग कर दिया था, उनके नमक, शक्कर, छाछ आदि का भी त्याग था तथा उन्होंने 35 वर्ष के मुनि जीवन में 27 वर्ष 3 माह 23 दिन (9938) तक उपवास धारण किये।
बम्बई सरकार ने हरिजनों के उद्धार के लिए एक हरिजन मंदिर प्रवेश कानून सन् 1947 में बनाया। जिसके बल पर हरिजनों को जबरदस्ती जैन मंदिरों में प्रवेश कराया जाने लगा। जब आचार्य श्री को यह समाचार ज्ञात हुआ तो उन्होंने इसे जैन संस्कृति, जैन धर्म पर आया उपसर्ग जानकर, जब तक यह उपसर्ग दूर नहीं होगा तब तक के लिए अन्नाहार का त्याग कर दिया। आचार्य श्री की श्रद्धा एवं त्याग के परिणाम स्वरूप लगभग तीन वर्ष पश्चात् इस कानून को हटा दिया गया। तभी आचार्य श्री ने 1105 दिन के बाद 16 अगस्त 1951 रक्षाबन्धन के दिन अन्नाहार को ग्रहण किया।
दिल्ली में दिगम्बर मुनियों के उन्मुक्त विहार की सरकारी आज्ञा नहीं थी। अत: 10-20 आदमी हमेशा महाराज के विहार के वक्त साथ ही रहते थे। आचार्य महाराज को चतुर्मास के दो माह व्यतीत होने पर जब यह बात ज्ञात हुई तो महाराज ने स्वयं एक फोटोग्राफर को बुलवाया और ज्ञात समय के पूर्व अकेले ही शहर में निकल गये तथा जामामस्जिद, लालकिया, इंडिया गेट, संसद भवन आदि प्रमुख स्थानों पर खड़े होकर उन्होंने अपना फोटो खिचवाया। समाज में अपवाद होने लगा कि महाराज को फोटो खिचवाने का शौक है।
इस विषय में महाराज से पूछे जाने पर उन्होंने ने कहा-हमारे शरीर की स्थिति तो जीर्ण अधजले काठ के समान है इसके चित्र की हमें क्या आवश्यकता और वह चित्र हम कहाँ रखेंगे। श्रावकों का कर्तव्य है कि इन चित्रों को सम्हाल कर रखें जिससे भविष्य में मुनि विहार की स्वतंत्रता का प्रमाण सिद्ध हो सके। हमारे इस उद्योग से सभी दिगम्बर जैन मुनियों में साहस आवेगा, दिगम्बर जैनधर्म की प्रभावना होगी। हमारे ऊपर उपसर्ग भी आए तो हमें कोई चिन्ता नहीं। अच्छे कार्य करते हुए भी यदि अपवाद आये तो उसे सहना मुनि धर्म है न कि उसका प्रतिवाद करना।
आगम ग्रन्थों की सुरक्षा को दृष्टि में रखते हुए आचार्य श्री के आशीर्वाद एवं प्ररेणा से सिद्धान्त ग्रन्थों को ताम्रपत्र पर कराया गया। अनेकों भव्य आत्माओं ने आचार्य श्री से व्रत-संयम ग्रहण कर अपने जीवन का उद्धार किया।
(यह विवरण चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ से लिया गया है जो सिवनी मध्यप्रदेश के स्व पंडित सुमेरचंद दिवाकर जी द्वारा लिखा गया विश्वप्रसिद्ध जीवनी ग्रंथ है।)
पूर्व नाम : श्री सातगौड़ा पाटिल
पिता का नाम : श्री भीमगौड़ा जी पाटिल
माता का नाम : श्रीमती सत्यवती जी
जन्म दिनांक : 25 जुलाई 1872, बुधवार, आषाढ़ कृष्ण-6, वि.सं. – 1929
जन्म स्थान : येलगुल, बेलगांव (कर्नाटक) (नाना के घर), भोजग्राम के समीप
ब्रह्मचर्यव्रत : 18 वर्ष की उम्र में
क्षुल्लक दीक्षा : 16 जून 1913, सोमवार, ज्येष्ठ शुक्ल – 13, वि.सं. – 1970 उत्तूर ग्राम
ऐलक दीक्षा ः 15 जनवरी 1916, शनिवार, पौष शुक्ल – 14, वि.सं. – 1973 श्री दिग. जैन सिद्धक्षेत्र गिरनार जी, जिला जूनागढ़ (गुजरात)
मुनि दीक्षा : 2 मार्च 1920, मंगलवार फाल्गुन शुक्ल – त्रयोदशी, वि. सं. – 1976 यरनाल, बेलगांव (कर्नाटक)
दीक्षा गुरू : मुनि श्री देवेन्द्रकीर्ति जी महाराज
आचार्य पद : 8 अक्टूबर 1924, बुधवार आश्विन शुक्ल -11, वि.सं. – 1981 समडोली, जिला – सांगली (महाराष्ट्र)
समाधि : 18 सितम्बर 1955, रविवार द्वितीय भाद्रपद शुक्ल – 2, वि. सं. – 2012 श्री दिग. जैन अतिशय क्षेत्र कुन्थलगिरि, उस्मानाबाद (महाराष्ट्र)
आपकी पावन पवित्र शुद्धात्मा को अनंत बार नमन
संकलनकर्ता नन्दन जैन