चतुर्दशी (27 जनवरी), इस दिन चौथे तीर्थंकर श्री अभिनंदननाथ जी को 18 वर्ष तप के बाद अयोध्या नगरी के ही, उग्रवन में सरल वृक्ष के नीचे अपराह्न काल में केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। आपका केवलीकाल एक लाख पूर्व, 8 पूर्वांग, 18 वर्ष का रहा यानि अजितनाथ जी के केवलीकाल से थोड़ा ज्यादा और गणधर भी ज्यादा यानि 103 थे।
केवलज्ञान होते ही अरिहंत परमात्मा 5,000 धनुष ऊपर अंतरिक्ष में विराजमान हो जाते हैं।
5,000 धनुष यानि 20,000 हाथ, इसलिए समवशरण में भगवान तक पहुचंने की कुल 20,000 सीढियां होती हैं।
46 गुण युक्त तीर्थंकर अरिहंत परमात्मा के 4 गुण अनंत चतुष्टय आत्मा की पूर्ण शुद्ध पर्याय है।
धर्मचक्र प्रगट होता है जो समवशरण में गंधकुटी के नीचे पीठिका पर रहता है और भगवान के विहार के समय आगे आगे चलता है।
आकाश मार्ग से विहार के समय देवतागण भगवान के एक एक चरण कमल के नीचे 225 स्वर्ण कमल की रचना करते हैं 32 लाइनों में एक एक लाइन में 7-7 और 1 कमल चरण के ठीक नीचे
देवगण जयजयकार का उच्चारण करते हैं।
दिव्यध्वनि सुनकर भव्य जीव सम्यकदर्शन को प्राप्त करते हैं, मुनिदीक्षा लेते हैं और मोक्ष को प्राप्त करते हैं।