कांटा डालकर बैठा , ना ही पानी में कोई हलचल, कांटे के आसपास बहुत-सी मछलियाँ , लेकिन कोई फंस नहीं रही, जानते है क्यों?

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स्वयं को समझने का सबसे आसान तरीका है मौन, शब्दहीनता, ध्वनिहीनता मौन नहीं है- मौन है मन का शान्त हो जाना

वो बहुत देर से कांटा डाले तालाब के किनारे बैठा था। कोई मछली कांटे में नहीं फँसी, ना ही पानी में कोई हलचल हुई। उसने तालाब में झाँका देखा तो आश्चर्य हुआ कि कांटे के आसपास बहुत-सी मछलियाँ थीं। लेकिन कोई फंस नहीं रही थी। एक राहगीर ने जब यह देखा तो कहा -भैया अब इस तालाब की मछलियाँ कांटे में नहीं फँसती। पिछले दिनों तालाब के किनारे एक बहुत बड़े संत ठहरे थे। उन्होने यहाँ अपनी ओजस्वी वाणी में मौन की महत्ता पर प्रवचन दिया था। जिसे मछलियों ने भी बड़े ध्यान से सुना। उनके प्रवचनों का ही असर है कि जब भी कोई इन्हें फँसाने के लिए कांटा डालकर बैठता है तो ये मौन धारण कर लेती हैं। जब मुँह खोलेंगी ही नहीं तो कांटे में फँसेंगी क्यों?

हमें प्रकृति ने दो हाथ, दो पैर, दो कान, दो आँखें, नासिका के दो छिद्र दिये। लेकिन ऐसा क्यों हुआ कि जिह्वा एक ही दी? क्योंकि यह एक ही अनेकों विषम परिस्थितियाँ पैदा करने के लिये पर्याप्त है। कितनी सार्थक है संत-वाणी कि जब मुँह खोलोगे ही नहीं तो फँसोगे कैसे? अगर इन्द्रिय पर संयम करना चाहते हैं तो इस जिह्वा पर नियंत्रण कर लेवें बाकी सब इन्द्रियां स्वयं नियंत्रित रहेंगी।

यदि हम चाहते हैं कि लोग हमारी वास्तविक योग्यता से अधिक योग्य व्यक्ति समझे तो कम कहें। अज्ञानी यदि कम बोले तो वह अज्ञानी नही रहेगा। मौन में तो व्यक्ति स्वयं के अतिरिक्त किसी से भी संपर्क नहीं करता। स्वयं का स्वयं से संपर्क ही तो मौन है। मौन मुख से ही नहीं मन से भी होना ज़रूरी है। किसी से बात नहीं पर उसे लिखकर, भाव-भंगिमा द्वारा या किसी अन्य सांकेतिक भाषा में संदेश दे रहे हैं तो यह मौन, मौन नहीं। केवल वाणी का प्रयोग ना करना है। अच्छे काम, परमात्मा से प्रेम, अपना कर्तव्य, चुपचाप करें। लेकिन अन्याय और अपराध होता देख, धर्म की क्षति होने पर तथा गुरू से ज्ञान लेते, शंका समाधान करते समय मौन होना खतरनाक हो सकता है।

वाणी का वर्चस्व रजत हैं, किन्तु मौन कंचन हैं। – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

मौन वह साधना है जिससे राग-द्वेष की भावना का नाश और वाणी शुद्ध एवं सिद्ध होती है। आत्मबल, कार्य क्षमता बढ़ती है। महावीर, बुद्ध, ईसा, नानक, सभी धर्म के प्रणेताओं का जीवन-दर्शन देखें तो वे मौन से ही भरपूर है। इन सबने मौन ध्यान, साधना द्वारा बाहरी आसक्तियों से अपने मन को समेट कर अंतस की ओर केन्द्रित किया और साधा। तभी आंतरिक ज्ञान सागर की गहराईयों में उतर कर वास्तविक विवेकी ज्ञान की प्राप्ति हुई। सांसारिक जगत में जिस प्रकार से परिवार समाज और देश में चारों ओर अशांति व आतंक का वातावरण बढ़ रहा है, उसका कारण है कि हम बिना सोचे-समझे और परिणामों पर ध्यान किए प्रतिक्रिया व्यक्त कर देते हैं।

मौन, क्रोध की सर्वोत्तम चिकित्सा है। मन की एकाग्रता ही समग्र ज्ञान है। विवेकानन्द जी

कबीरा यह गत अटपटी, चटपट लखि न जाए। जब मन की खटपट मिटे, अधर भया ठहराय। अधर वास्तव में तभी ठहरेंगें, शान्त होंगे जब मन की खटपट मिट जायेगी। मन जब तक अशान्त है, तब तक होंठ चलें या न चलें कोई अन्तर नहीं। क्योंकि मूल बात तो मन में बनी हुई अशान्ति है। शब्दहीनता, ध्वनिहीनता मौन नहीं है- मौन है मन का शान्त हो जाना अर्थात कल्पनाओं की व्यर्थ उड़ान पर विराम। आन्तरिक मौन में लगातार शब्द मौजूद भी रहें तो भी, मौन बना ही रहता है। उस मौन में कुछ बोलते भी रहो तो कोई अन्तर नहीं पड़ता।
डॉ निर्मल जैन द्वारा लिखित और नवभारत टाइम्स 3 मार्च 2022 में प्रकाशित