शुक्रवार ११ फ़रवरी २०२२
जिस समाज और धर्म से मैं भी हूँ। हे आत्मन उस दिगंबर जैन धर्म और समाज की तीर्थंकर प्रभु और असंख्यात दिव्य आत्माओं का सम्मेद शिखर जी और गिरनार जी से निर्वाण हुआ है।
हमारे जीवनकाल में उनकी पावन तपस्थलियाों के अस्तित्व पर संकट गहराता जा रहा है। हमें क्रमशः वंदन, पूजन और आराधना करने से वंचित किया जा रहा है।
तीसरी टोंक -शम्भू कुमार मुनि जी मोक्ष गए है। इसे ही अजैन लोग गुरु गोरक्षनाथ शिखर बोलते है।
नेतृत्व विहीन, अक्षम और दिशाहीन मौन दर्शक समाज
भास्कर में प्रकाशित समाचार से सीख कौन लेगा ? या पूर्ववत चलता रहेगा !
आज शुक्रवार ११ फ़रवरी २०२२ के दैनिक भास्कर, इंदौर के पृष्ठ १४ पर प्रकाशित समाचार “गिरनार पर्वत पर ३,६६३ फ़ीट की ऊँचाई पर गुरु गोरक्षनाथ शिखर “गोरखनाथ चोंटी)” पर सोमवार को पीतल के १५१ फ़ीट ऊंचे स्तंभ पर लहराई २६ फूट की ध्वजा। इस शिखर पर गोरक्षनाथ जी की तपस्थली पर उन्होंने १२०० साल तक तपस्या की थी। उनके द्वारा यहां प्रज्वलित धूनी आज भी अखंड स्वरूप में मौजूद है।”। यह प्रकाशित इस समाचार से हमारा समाज विचलित, उद्वेलित और उत्तेजित होने वाला नहीं है। हम उदासीन हैं, निष्क्रिय हैं, असहाय है, परवश हैं।
हमारे तीर्थ स्थानों की अपेक्षा अल्पसंख्यक सिक्ख समाज, मुस्लिम समाज, ईसाई और पारसी समाज और धर्म के अनुयायियों के धर्मस्थलों पर क़ब्ज़ा करने की हिमाक़त क्यों नहीं हो पाती है ?
कहते हैं जैनों के पूर्वज और तीर्थंकर प्रभु छत्रीय थे। वीर, बहादुर और करोड़ों की संख्या में थे। हम बिखरे हुए हैं। नेतृत्व विहीन हैं। आपस में लड़ने-झगड़ने के मामले अवश्य ही वीर-बहादुर हैं। अपने-अपने निजी स्वार्थों में रमे हुए हैं। हमारा त्याग, बलिदान और आत्मबल न जाने कहां विलुप्त हो चुका है। जगाने वाले कर्तव्य विमुख हैं। जो जागना चाहते हैं, उनकी औक़ात नहीं है ! अधिकार विहीन हैं। उनकी परवाह नहीं की जा रही है।
हमारे समाज की संस्थाओं के कर्ताधर्ताओं में कर्तव्य निर्वाह की प्रबल इच्छाशक्ति ही नहीं है,अपनी संस्थाओं को शासन के अल्पसंख्यक पंजीयक के यहाँ पंजीकृत कराएँ। सात साल बीत जाने के बावजूद हमने पता लगाने की कोशिश नहीं की हे कि हमारे सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक अल्पसंख्यक अधिकार क्या हैं ? उनको जानने और समझने के प्रति उदासीन होने के कारण हम अपने अल्पसंख्यक अधिकारों का लाभ नहीं ले सकें हैं।
नेमिनाथ प्रभु का की निर्वाण स्थली हमारे लिए अब सिर्फ़ नाम लेने के लिए ही बची है। दोषी हम ही तो हैं। दोषी समाज है सारा।
शिखर जी सिद्धक्षेत्र पर भी अन्य समाज वालों की निगाह गिरनार जी की तरह योजनाबध्द, सुविचारित बढ़ने के संकेत स्पष्ट रूप से सामने आते जा रहे है ?
मामले न्यायालय में हैं। विचलित करने वाली घटनाएँ सामने आने पर न्यायालय में आपत्ति तक नहीं ली जा रही है।
सर्वोच्च न्यायालय के प्रकरण में लाखों की संख्या में काग़ज़ात हैं। न्यायमूर्ति इतने काग़ज़ात कैसे देख सकेंगें ? तारीख़ बार-बार बढ़ जाती है। वकील को लाखों रुपयों की फ़ीस मिल जाती है। बात बन नहीं रही है।
समाज की संख्या निरंतर घटती जा रही है। आगे जाकर यह संख्या हज़ारों में हो सकती है। लड़कियों अन्य समाज में जा रही हैं। परिवार में एक-दो बालक हो रहे हैं। घटती संख्या से भविष्य में अस्तित्व पर संकट आने की संभावना है।
– निर्मलकुमार पाटोदी, इंदौर