अब सजा फांसी-उम्रकैद तक, तो तब महाराजा श्री ऋषभनाथ और भरत चक्रवर्ती के समय क्या थी सजा, अपराध पर दण्ड

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हुण्डावसर्पिणी काल में खासकर ऐसे मनुष्यों का उत्पाद होता है, जो प्रकृत्या अभद्र अभद्रतर होते जाते हैं। समय उसी गति से बढ़ता रहा, फिर भरत चक्रवर्ती हुए। उन्होंने ऋषभदेव जी के बाद शासन संभाला, लोगों में उत्तरोत्तर अभद्रता बढ़ती गई। तब आज की तरह अपराध के लिये उम्र कैद-फांसी जैसी सख्त दण्ड व्यवस्था की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, क्योंकि उनकी अभद्रता राक्षसी-नारकीय तक नहीं गिरी थी।

मनुओं के समय में राजनैतिक दण्डविधान की सिर्फ तीन धारायें थीं, ‘हा’, ‘मा’ और ‘धिक’। यानि तब मामूली अपराध होते जो आज जीवन पद्धति बन चुके हैं, तब उसे अपराध माना जाता था और उस अपराध पर दण्ड में शासक सिर्फ ‘हा’ खेद है, इतना कहने पर ही अपराधी सचेत हो जाता था। जो आज एक-दो साल की सजा कहा जा सकता है, तब इतना कहने पर ही सुधर जाता था। लोग और अभद्र होते गये तो ‘मा’ और ‘धिक’ शब्द भी प्रचलन में आये, यानि अपराध की तीन श्रेणी हो गई। भविष्य में ऐसा नहीं करना, यही दण्ड निश्चित किया गया।

समय के साथ चतुर्थकाल में अभद्रता और बढ़ी (पर आज जैसी नहीं) तब ‘हा, मा, धिक’ – खेद है तीन दण्डों का तीन श्रेणी के अपराधों के लिये प्रावधान हो गया। ‘हा’ – खेद है, यानि अब ऐसा ना करना। दोबारा करना ‘मा’ और मना करने पर भी नहीं मानते, इसलिये तुम्हें धिक्कार है यानि शासक द्वारा ‘धिक’ शब्द कहा जाने लगा। समझ लीजिये आज क्रूरतम अपराध की जैसे फांसी सजा है, तब ‘धिक’ शब्द ही काफी था।

आदिपुराण की गाथा 214 में उल्लेख है कि 5 कुलकरों ने अपराधी मनुष्यों के लिए ‘हा’ यानि खेद है, तुमने ऐसा अपराध किया। फिर अगले 5 कुलकरों ने ‘हा’ और ‘मा’ दोनों प्रकार के दण्डों की व्यवस्था की यानि खेद है तुमने ऐसा अपराध किया, अब आगे ऐसा नहीं करना। गाथा 215 के अनुसार अभद्रता बढ़ती गई और शेष कुलकरों ने ‘हा’, ‘मा’ में ‘धिक’ और जोड़ दिया यानि खेद है, अब ऐसा नहीं करना और तुम्हें धिक्कार है कि रोकने पर भी अपराध करते हो। बस इतना कहने से ही भद्र पुरुष ग्लानि महसूस करते थे, सुधर जाते थे।

पर भोग भूमि खत्म और कर्म भूमि में जैसे ही मेहनत करनी पड़ी, अपराधिक मनोवृत्ति बढ़ने लगी। तब ऋषभदेव जी के ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती ने वध, बंधन आदि शारीरिक दण्ड की रीति चलाई थी (आदिपुराण गाथा 216), वही व्यवस्था आज तक चलती आ रही है कि अपराध को दोषानुरूप शारीरिक दण्ड दिया जाये।
(स्त्रोत आदि पुराण)