आज विश्व पटल पर सबके आकर्षण का केन्द्र बनी ‘अयोध्या’ का निर्माण किसी राजा-महाराजा, राजनीतिक पार्टी, सरकार, मिस्त्री, मजदूर द्वारा नहीं. तो किसने, कब और क्यों किया?

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अयोध्या क्यों कहलाती है साकेत, सुकौशला, विनीता भी

श्रीराम जन्मभूमि के रूप में सुविख्यात हो रही अयोध्या नगरी आज विश्व पटल पर सबके आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है। अयोध्या जहां श्रीरामजी का जन्म हुआ, पर कभी इस बात का चिन्तवन किया कि अयोध्या का निर्माण किया किसने? इसके लिये आपको श्रीराम जन्म के चुतर्थ काल से बहुत पहले तीसरे काल के अंत तक जाना होगा यानि कर्म भूमि से भोग भूमि तक।

भोगभूमि तब समाप्ति की ओर थी, कल्पवृक्षों का अभाव होने लगा। तब अंतिम कुलकर महाराज श्री नाभिराय ने अपनी संचित पुण्य वर्गणाओं के बल पर स्वर्ग से इन्द्र को बार-बार बुलाया, तब इन्द्र ने रचना की एक भव्यतम नगरी की। इन्द्र ने आज्ञा दी और अनेक उत्साही देवों ने बड़े उत्साह के साथ स्वर्गपुरी के समान उस नगरी की रचना की। मानो मध्यम लोक में स्वर्गलोक का प्रतिबिम्ब रखने की इच्छा से उसे अत्यंत सुंदर बनाया। हमारा स्वर्ग बहुत छोटा है, मात्र तीन व्यक्तियों के रहने योग्य स्थान है, ऐसा मानकर उन्होंने सैकड़ों – हजारों लोगों के रहने योग्य उस नगरी की मानो ‘विस्तृत स्वर्ग’ की रचना की।

उस नगरी के मध्य में देवों ने राजमहल बनाया था, वह राजमहल इन्द्रपुरी के साथ स्पर्धा करने वाला था, और बहुमूल्य अनेक विभूतियों के सहित था। उस समय जो लोग जहां-तहां बिखरे हुए रहते थे, देवों ने उन सब को लाकर उस नगरी में बसाया। देवों ने उस नगरी को वप्र (धूलि के बने हुए छोटे कोट), प्राकार (चार मुख्य दरवाजों सहित, पत्थर के बने मजबूत कोट) और परिखा आदि से सुशोभित किया था। उस नगरी का नाम रखा ‘अयोध्या’ (साकेत), अयोध्या यानि कोई भी शत्रु उससे युद्ध नहीं कर सकता और ‘साकेत’ यानि पताकाएं फहराती अच्छे-अच्छे मकानों की नगरी। वह नगरी सुकोशल देश में थी, इसीलिये ‘सुकोशला’ नाम से भी लोकप्रिय हुई। वह नगरी अनेक विनीत – शिक्षित – विनयवान – सभ्य मनुष्यों से व्याप्त थी, इसलिए ‘विनीता’ भी कहलाई।

राजभवन, वप्र, कोट और खाई सहित वह नगर ऐसा था, जिसे आगे कर्मभूमि में होने वाले नगरों की रचना के लिए एक प्रतिबिम्ब- नक्शा बनाया गया। फिर उस अयोध्या में सब देवों ने मिलकर किसी शुभ दिन, शुभ मुहूर्त, शुभ योग और शुभ लगन में हर्षित होकर पुण्याहवाचन किया। साथ ही महाराज नाभिराय – मरुदेवी को अनेक सम्पदाओं की परम्परा प्राप्त हुई, दोनों अतिशय ऋद्धियुक्त अयोध्या नगरी में निवास करने लगे। तब इन्द्र ने भी दोनों की अभिषेक पूर्वक बड़ी पूजा की, क्योंकि इन दोनों के सर्वज्ञ ऋषभदेव पुत्र जन्म लेंगे। और अगले ही दिन से उस महल पर साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा सुबह – दोपहर – शाम शुरू हो गई, लगातार 15 माह तक, क्योंकि 6 माह बाद स्वर्ग में आयु पूर्ण कर ऋषभदेव माता मरुदेवी के गर्भ में आये और उसके नौ माह बाद उनका जन्म हुआ।

अब आप समझ ही गये होंगे, ऐसी भव्य अयोध्या नगरी की रचना इस लोक के किसी राजा-महाराजा, राजनीतिक पार्टी, सरकार, मिस्त्री, मजदूर द्वारा नहीं हुई, बल्कि स्वर्ग से आये देवों द्वारा की गई।

(स्त्रोत : आदिपुराणम्, गाथा 69-88)
-संकलन : चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी

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