मित्रों जिसे हम मांस कहते हैं वह वास्तव में क्या है? आत्मा के निकल जाने के बाद पांच तत्व का बना आवरण अर्थात शरीर निर्जीव होकर रह जाता है। यह निर्जीव, मृत अथवा निष्प्राण शरीर ही लाश या शव कहलाता है। यह शव आदमी का भी हो सकता है और पशु का भी। इस शव को बहुत अशुभ माना जाता है। इसकी भूत मिट्टी आदि निकृष्ट चीजों से तुलना की जाती है। यदि कोई इसे छू लेता है तो उसे स्नान करना पड़ता है।
जिस घर में यह रखा रहता है उस घर को अशुद्ध माना जाता है। और वहां खाना बनना तो दूर कोई पानी भी नहीं पीना चाहता। इसको देखकर कई लोग तो डर भी जाते हैं क्योंकि आत्मा के निकल जाने पर यह अस्त-व्यस्त और डरावना हो जाता है। मांसाहार करने वाले लोग इसी शव को या लाश को खाते हैं। इसलिए यह मांसाहार, शवाहार या लाशाहार ही है।
आधुनिक पात्रों में जंगली खाना
कहा जाता हैं कि प्राचीन समय में जब सभ्यता का विस्तार नहीं हुआ था उस समय मानव जंगल में रहता था। तो उसके पास जीवन में उपयोगी साधनों का अभाव था। उस समय पेट भरने के लिए वह जंगली जानवरों का कच्चा मांस खा लेता था। धिरे-धीरे कृषि प्रारंभ हुई अनेक प्रकार के खादों का उत्पादन हुआ, शहर बसे और मानव ने अनेक जीवन उपयोगी साधनों का आविष्कार कर उस आदिम जंगली जीवन को तिलांजलि दे दी। उस समय की भेंट में आज उसके पास मकान, वस्त्र, जूते, बर्तन, मोटर, कम्प्यूटर आदि सब उत्तम प्रकार के आरामदायक साधन है। उपरोक्त तथ्य यदि सत्य है तो मानव ने काफी विकास कर लिया है।
वह हाथ में लेकर खाने के बजाए, पत्तों ऊपर रखकर खाने के बजाय आधुनिक डिजाइन की प्लेस में चम्मच के प्रयोग से खाता है। डाइनिंग टेबल पर बैठना भी उसने सीख लिया। परंतु प्रश्न यह है कि वह खाता क्या है? उसकी प्लेट में है क्या ? यदि इतनी साज सज्जा, रखरखाव को अपना कर, इतना विकास करके भी उसकी प्लेट पर रखा आहार यदि आदिम काल वाला ही है, यदि इतना विकास करके भी वह उस जंगली मानव वाले खाने को ही अपनाए हुए हैं तो विकास क्या किया?
यह तो वही बात हुई कि मटका मिट्टी के स्थान पर सोने का हो गया पर अंदर पड़ा पदार्थ जहर का जहर ही रहा। यदि सभ्यता ने विकास किया तो क्या सिर्फ बर्तनों और डाइनिंग टेबल कुर्सियों तक ही विकास किया? क्या खाने के नाम पर सभ्यता नहीं आई?
फर्क इतना ही तो है उस समय जानवर को मारने के तरीके दूसरे थे और आजकल तीव्रगति वाली मशीनें यह कार्य कर देती है परंतु मुख तो अपने को मानव कहलाने वाले का ही है। मारने के हथियार बदल गए परंतु खाने वाला मुख तो नहीं बदला।
मुख तो मानव का ही है। पेट बन गया शमशान
शव को जब श्मशान में ले जाते हैं तो उसे चिता पर लिटा कर आग लगाई जाती है। परंतु मानव को देखिए, वह शव को अथवा शव के टुकड़ों को रसोईघर में ले जाता है। फिर उस को रसोईघर के बर्तनों में पकाता है। तो उसकी रसोई क्या हो गई? श्मशान ही बन गई ना! तो फिर उस लाश को मुंह के माध्यम से पेट में डालता हैं। सच पूछो तो ऐसे व्यक्ति के घर की हवा भी पतित बनाने वाली है। संत तुकाराम कहते हैं कि पापी मनुष्य यह नहीं देख पाता है कि सभी प्राणियों में प्राण एक सरीका होता है। जो व्यक्ति ना तो स्वयं कष्ट पाना चाहता है, ना मरना चाहता है वह निष्ठुरता पूर्वक दूसरों पर हाथ कैसे उठाता है?
यही भाव संत दादू दयाल का है- कोई काहू जीव की, करें आत्मा घात। सांच कहू संसा नहीं, सो प्राणी दोजखि जात। पूरी गंभीरता के साथ संत दादूदयाल जी कहते हैं कि ‘मैं सच कहता हूं, मुझे इसमें तनिक भी शंका नहीं है कि ऐसा प्राणी नरक में जाता जाता है अर्थात पाप में डूब जाता है। वास्तव में मांस खाने वाले को इस शब्द का अर्थ समझना चाहिए मांस अर्थार्थ माम्सः मेरा वह। जिसको मैं खा रहा हूं वह मुझे खाएगा। यह एक दुष्चक्र है।
हिंसा इस चक्र को जन्म देती है – उसके इस जन्म में मैं उसे खाता हूं, अगले जन्म में मुझे हिंसा का शिकार होना होगा। और इस प्रकार मेरा भोजन ही मेरा कॉल बन कर जन्म जन्मांतर तक मेरे पीछे लगा रहेगा। इसलिए माँ प्रकृति की बड़ी संतान मानव को अपने छोटे भाइयों (मूक प्राणियों) को जीने का अधिकार देते हुए, मैं जिऊँ और अन्य को मरने दो, इस राक्षसी प्रवृत्ति को छोड़ देना चाहिए।
– शुभम सिंघई जैन