13 जनवरी ,जब चारों ओर हिंसा का वातावरण था, निर्दोष पशुओं को धर्म के नाम पर जलाया जाता था, कर्मकांड का जोर था, महावीर ने आगे बढ़कर बहुत बड़ी क्रांति की अपने पुरुषार्थ से संपूर्ण वातावरण को अहिंसामय बनाया। राजमहलों में बड़े पले सुकुमार महावीर जब यौवन की दहलीज पर पहुंचे तो उन्होंने वैराग्य को अंगीकार कर लिया, क्योंकि उन्हें जन्म जरा और मृत्यु का निदान महलों में दिखाई नहीं दिया।
इन महा दुखों का निवारण धर्म की शरण में ही है ऐसा जानकर उन्होंने मुनि धर्म को अंगीकार कर लिया और सारे संसार के महा मोह रूपी रोग के निवारण के लिए धर्म का उपदेश दिया। ये उदगार मुनि श्री समता सागर महाराज ने दिगंबर जैन धर्मशाला में महावीर अष्टक पर चल रहे अपने प्रातः कालीन प्रवचनों में अभिव्यक्त किए।
मुनि श्री ने अपने प्रवचनों में आगे कहा कि मनुष्य जरा में राजी और जरा में नाराजगी व्यक्त करता है छड़ भर में आग बबूला हो जाता है और अगले ही पल पानी का बबूला बन जाता है मनुष्य के स्वभाव में स्थिरता नहीं रहती वह स्वार्थ और सौदेबाजी के अलावा संसार में क्या करता है, मनुष्य अपना पेट न्याय और नीति से भर सकता है पशु पक्षी भी ऐसा कर लेते हैं लेकिन पेटी तो अन्याय और अनीति से ही भरी जा सकती है पेट की व्यवस्था के साथ पेटी की साइज भी निश्चित करनी चाहिए, संतोष के परिणामों से इसे सीमित रखा जा सकता तभी मनुष्य के जीवन में सुख शांति संभव है।