चौबीस तीर्थंकरों का अन्तराल- भगवान ऋषभदेव के अनन्तर अजितनाथ आदि महावीरपर्यंत चौबीस तीर्थंकर हुए हैं

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भगवान ऋषभदेव के मुक्त हो जाने के पश्चात् पचास लाख करोड़ सागरों के व्यतीत हो जाने पर अजितनाथ तीर्थंकर ने मोक्षपद प्राप्त किया।
अजितनाथ के मुक्त होने के बाद तीस लाख करोड़ सागरों के व्यतीत हो जाने पर संभवनाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके बाद दस लाख करोड़ सागर व्यतीत हो जाने पर अभिनंदननाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके बाद नौ लाख करोड़ सागरों के चले जाने पर सुमतिनाथ भगवान सिद्धि को प्राप्त हुए।
इसके पश्चात् नब्बे हजार करोड़ सागरों के बीत जाने पर पद्मप्रभ जिन सिद्धि को प्राप्त हुए।
इसके अनन्तर नौ हजार करोड़ सागरों के चले जाने पर सुपाश्र्वनाथ भगवान मोक्ष को प्राप्त हुए।
इसके बाद नौ सौ करोड़ सागरों के चले जाने पर चन्द्रप्रभ देव मोक्ष को प्राप्त हुए।
इसके बाद नब्बे करोड़ सागरों के बीत जाने पर पुष्पदन्तनाथ जिन सिद्धि को प्राप्त हुए।
इसके अनन्तर नौ करोड़ सागरों के चले जाने पर शीतलनाथ भगवान सिद्ध हुए।
इसके बाद छ्यासठ लाख, छब्बीस हजार, सौ सागर कम एक करोड़ सागर अर्थात् तैंतीस लाख, तेहत्तर हजार, नौ सौ सागर के व्यतीत हो जाने पर श्रेयांसनाथ भगवान मोक्ष को प्राप्त हुए।
इसके अनन्तर चौवन सागर के बीत जाने पर वासुपूज्य भगवान मोक्ष को प्राप्त हुए।
इसके बाद तीस सागर व्यतीत हो जाने पर विमलनाथ भगवान सिद्ध हुए।
इसके बाद नौ सागर व्यतीत हो जाने पर अनंतनाथ मुक्त हुए।
इसके बाद चार सागर चले जाने पर धर्मनाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके बाद पौन पल्य कम तीन सागर के बीत जाने पर शांतिनाथ भगवान सिद्ध हुए।
इसके अनन्तर अद्र्धपल्य काल के बीत जाने पर वुंâथुनाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके बाद एक करोड़ वर्ष कम पाव पल्य के बीत जाने पर अरनाथ भगवान सिद्ध हुए।
इसके बाद एक हजार करोड़ वर्षों के बाद मल्लिनाथ जिन सिद्ध हुए।
इसके पश्चात् चौवन लाख वर्षों के बीत जाने पर मुनिसुव्रतनाथ सिद्ध हुए।
इसके पश्चात् छः लाख वर्ष बीत जाने पर नमिनाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके बाद पाँच लाख वर्षों के बीत जाने पर नेमिनाथ भगवान सिद्ध हुए।
इसके पश्चात् तेरासी हजार सात सौ पचास वर्षों के बीत जाने पर पाश्र्वनाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके पश्चात् दो सौ पचास वर्षों के बीत जाने पर महावीर भगवान सिद्ध हुए। उस समय पंचम काल के प्रवेश होने में तीन वर्ष साढ़े आठ माह शेष थे।
धर्मतीर्थ व्युच्छित्ति का काल- पुष्पदंत को आदि लेकर धर्मनाथपर्यंत सात तीर्थंकरों के तीर्थों में धर्म की व्युच्छित्ति (अभाव) हुई थी और शेष सत्रह तीर्थंकरों के तीर्थों में धर्म की परम्परा निरन्तर अक्षुण्णरूप से चलती रही है।

पुष्पदंत के तीर्थ में पाव पल्य तक धर्म का अभाव रहा है अर्थात् उस समय दीक्षा के अभिमुख होने वालों का अभाव होने पर धर्मरूपी सूर्यदेव अस्तमित हो गया था। इसी प्रकार शीतलनाथ के तीर्थ में अर्द्ध पल्य तक, श्रेयांसनाथ के तीर्थ में पौन पल्य तक, वासुपूज्यदेव के तीर्थ में एक पल्य तक, विमलनाथ के तीर्थ में पौन पल्य तक, अनन्तनाथ के तीर्थ में अर्द्ध पल्य तक और धर्मनाथ के तीर्थ में पाव पल्य तक धर्मतीर्थ का उच्छेद रहा था।

हुंडावसर्पिणी के दोष से यहाँ सात बार धर्म के विच्छेद हुए हैं।