अकेले चले तप के लिये और अपनी आयु का सबसे लंबा समय तप में व्यतीत करने वाले तीर्थंकर का तपकल्याणक : 29 नवंबर को

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23वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ के निर्वाण को लगभग 250 वर्ष हो चुके थे, तब तक लोगों ने उनके अहिंसापरक, उपदेशों को लगभग भुला-सा दिया था। अब तक चारों ओर पापाचार-अनाचार अपनी जड़े फैला चुका था। छद्म गुरुओं ने गलत शिक्षा से, धर्म में भी पशु बलि, नारी शोषण जैसी कुप्रथाओं से प्रजा को भ्रष्ट कर दिया था। अनुष्ठान बिना बलि के नहीं, चौराहों पर नारियों की बोली साधारण बात हो गई।

ऐसी विकट शोचनीय स्थितियों के बीच 2620 वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को कुण्डलपुर के महाराज सिद्धार्थ की महारानी त्रिशला के गर्भ से उस सौरमंडल रूपी दिव्य बालक का जन्म होता है, जो 30 वर्ष की अवस्था तक राजमहल में जरूर रहे, पर ना पिता का राजपाट संभाला, ना ही विवाह किया। राजमहल में रहकर भी कठोर ब्रह्मचर्य का पालन। उन्हें वीर, महावीर, वर्धमान, सन्मति, अतिवीर के नाम से आज तक जाना जाता है और जाना जाता रहेगा।

अनर्थक कर्मकाण्ड के स्थान पर सत्य-अहिंसा धर्म का मार्ग प्रशस्त हो, इसीका आत्मचिंतन करते उन्हें पूर्व भवों का स्मरण हो गया। राजमहल उन्हें सोने के कटघरे की तरह लगने लगा। माता-पिता को समझाकर, मनाकर, उनकी अनचाही अनुमति लेकर, सभी राजमुख, वैभाव को त्यागकर अपने लक्ष्य की ओर निकल पड़े, वह दिन था, मंगसिर (मार्ग शीर्ष) कृष्ण दशमी, जो इस वर्ष 29 नवंबर को है।

कुण्डलग्राम में चन्द्रप्रभा नामक पालकी से पण्डवन में अपराह्न काल में अकेले ही पहुंचे, जबकि अतीत में सभी तीर्थंकरों के साथ अनेक राजा (एक हजार) भी दीक्षा के लिये आगे आते हैं। संभवत: तब कर्मकाण्ड और काल का प्रभाव बहुत ज्यादा हो गया था। पंचमुष्टि केशलोंच कर अपराह्न काल में तीन उपवास के साथ कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यान में लीन हो गये। सभी तीर्थंकरों में अपने जीवन का सबसे बड़ा हिस्सा तप में व्यतीत किया। आपनेआयु का छठा भाग यानि 16 फीसदी, 72 वर्ष की आयु में 12 वर्ष कठोर तप किया।

आपको दूध की खीर के रूप में प्रथम आहार कूलग्राम के राजा कूल ने दिया। 12 वर्ष के कठोर तप के बाद बैसाख शुक्ल दशमी को ऋजुकला नदी के किनारे शाल वृक्ष के नीचे आपको केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। पर अन्य तीर्थंकरों की तरह आपकी दिव्य ध्वनि नहीं खिरी, क्योंकि आपकी ओंकारमय दिव्य ध्वनि को समझने के लिये कोई कुशल ज्ञाता समोशरण में नहीं होता था। 66 दिनों बाद, इन्द्रभूति गौतम के रूप में प्रथम गणधर को पाने के बाद दिव्य ध्वनि खिरती है।

बोलिये श्री वर्द्धमान स्वामी के तप कल्याणक की जय-जय-जय।

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