लंदन, र्बिलन , वाशिंगटन, पेरिस, बौस्टन, काठमांडू और रूस, इटली, आदि अनेक देशों के सैकड़ों पुस्तकालयों में हज़ारों मूल जैन पांडुलिपियां व् ग्रन्थ

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लंदन स्थित अनेक पुस्तकालयों में भारतीय ग्रंथ विद्यमान हैं, जिनमें से एक पुस्तकालय में तो लगभग १५०० हस्तलिखित भारतीय ग्रंथ हैं और अधिकतर ग्रंथ प्राकृत—संस्कृत भाषाओं में हैं और जैनधर्म से सम्बन्धित हैं।

जर्मनी में लगभग 5 हजार पुस्तकालय हैं। इनमें से र्बिलन स्थित एक पुस्तकालय में 12 हजार भारतीय हस्तलिखित ग्रंथ हैं, जिनमें बड़ी संख्या जैन ग्रंथों की है। अमेरिका के वाशिंगटन और बौस्टन नगर में 500 से अधिक पुस्तकालय हैं। इनमें से एक पुस्तकालय में 40 लाख हस्तलिखित पुस्तकें हैं, जिनमें भी २० हजार पुस्तकें प्राकृत—संस्कृत भाषाओं में हैं, जो भारत से गई हुई हैं।

फ्रांस में 1100 से अधिक बड़े पुस्तकालय हैं, जिनमें पेरिस स्थित बिब्लियोथिक नामक पुस्तकालय मे
40 लाख पुस्तकें हैं। उनमें १२ हजार पुस्तकें प्राकृत—संस्कृत भाषा में की हैं और भारत से गई हुई हैं

रूस में 1,500 बड़े पुस्तकालय हैं। उनमें एक राष्ट्रीय पुस्तकालय भी है, जिसमें 5 लाख पुस्तकें हैं। उनमें 22 हजार पुस्तकें प्राकृत—संस्कृत की हैं और भारत से गई हुर्इं हैं। इसमें जैन ग्रंथों की भी बड़ी संख्या में हैं।

इटली में लगभग 4,500 पुस्तकालय हैं। उनमें से प्रत्येक में लाखों पुस्तकों का संग्रह है। कोई 60 हजार पुस्तकें प्राकृत—संस्कृत की है, जो प्राय: भारत से गई हुई हैं। इनमें जैन पुस्तकें भी बड़ी संख्या हैं।

नेपाल के काठमांडू स्थित पुस्तकालयों में एवं अन्यत्र हजारों की संख्या में जैन प्राकृत और संस्कृत ग्रंथ विद्यमान हैं तथा शोध—खोज की अपेक्षा रखते हैं। इसी प्रकार, चीन, तिब्बत, ब्रह्मा, इण्डोनेशिया, जापान, मंगोलिया, कोरिया, तुर्की, ईरान, असीरिया काबुल आदि के पुस्तकालयों में भी भारतीय ग्रंथ बड़ी संख्या में मौजूद हैं। भारत से विदेशों में ग्रंथ ले जाने की प्रवृत्ति
केवल अंग्रेजों के काल से ही प्रारम्भ नहीं हुई, अपितु इससे हजारों वर्ष पूर्व भी भारत की इस अमूल्य निधि को विदेशी लोग अपने—अपने देशों में ले जाते रहे हैं।

उदाहरण के लिए, विक्रम की पाँचवीं शताब्दी में चीनी यात्री फाह्यान भारत में आया था और यहाँ से ताड़पत्रों पर लिखी हुई 1520 पुस्तकें चीन ले गया था। विक्रम की सातवीं शताब्दी में चीनी यात्री हुएनसांग भारत आया था और वह भी अपने साथ पहली बार 1550 पुस्तकें, दूसरी बार 2175 पुस्तकें और तदुपरान्त सन् 464 ईसवीं के आसपास 2550 ताड़पत्रों पर लिखे हुए ग्रंथ अपने साथ चीन ले गया।

इस प्रकार समय—समय पर विश्व के विभिन्न देशों से सैकड़ों यात्री आते रहे और वे अपने साथ महत्त्वपूर्ण भारतीय साहित्य ले जाते रहे। वे लोग भारत से कितने ग्रंथ ले गए उनकी संख्या का सही अनुमान लगाना कठिन है। इसके अतिरिक्त, म्लेच्छों, आततायियों, धर्म—द्बेषियों ने हजारों—लाखों की संख्या में हमारे साहित्य के रत्नों को जला दिया।

– आर्यिका चंदनामती