एकता का तुम प्रमाण दो, जैन एकता का दान दो, धर्म प्रेमियों, ज्ञानी बंधुओं,धर्म की दशा पे ध्यान दो – मुनि श्री

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व्यक्ति की नहीं, पूजा व्यक्तित्व की होती है – मुनि श्री
सागर, जब तीर्थंकर बालाक माता के गर्भ में आते हैं तो गर्भ में आने के छह माह पहले से ही नगर में देवों पुनीत रत्नों की वर्षा प्रारंभ हो जाती है, वर्तमान में भी जैसे ही संतान मां के गर्भ में आती है, संतान का जन्म होता है, मां के आंचल में दूध आ जाता हैl जो कि उस शिशु के लिए उत्तम पोषण आहार होता है l यह सब पूर्व के पुण्य उदय से ही प्राप्त हो पाता है l यह बात निश्चित है कि महान पुरुषों का जन्म भी महान नक्षत्रों में होता है परंतु विशेष नक्षत्रों में जन्म हो जाने से कोई महान नहीं हो जाता है पूजा व्यक्ति की नहीं होती है गुणों की होती है व्यक्तित्व की होती है l हो सकता है कि शरद पूर्णिमा आदि के विशेष नक्षत्रों में कई लोग जन्मे होंगे परंतु सभी एक जैसे गुणवान बन पाए यह जरूरी नहीं l सन 1933 में जन्मी बालिका जिन्होंने लगभग 18 वर्ष की उम्र संयम का पद ग्रहण कर लिया था आर्यिका श्री 105 ज्ञान मति माताजी जिनकी मां को पिताजी ने दहेज के साथ पद्मनंदी पंचविंशातिका ग्रंथ प्रदान किया था, जिसके ज्ञान को जीवन में उतारने के बाद ही उस बालिका को जन्म दिया जो आज ज्ञानमती माताजी के रूप में जैन धर्म के एक वटवृक्ष के रूप में खड़ी हैं l वैसे ही दूसरा जीव कर्नाटक प्रांत के सदलगा ग्राम में जन्मा जो विद्याधर से मुनिश्री विद्यासागर बना और आज आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के नाम से कौन परिचित नहीं, उनका परिचय उनकी साधना ही है l तभी कहा जाता है कि व्यक्ति की नहीं व्यक्तित्व की पूजा होती है साधना की पूजा होती है गुणों की पूजा होती है l

गुणों में अनुराग होना ही भक्ति है, पूजा है, और क्या कहें वास्तविक भक्ति तो वही है कि वह गुण अपने जीवन में उतार लिए जाएं l जो जिन आज्ञा का पालन करें वह ही जैन है, यथार्थ में तो जो जैन आज्ञा का पालन करके खुद ही जिन हो जाना चाहता है, अर्थात मुनि मार्ग द्वारा स्वयं ही सिद्ध बन जाना चाहता है वही वास्तविक जैन है l इसलिए नाम धारी जैन और कर्म धारी जैन कहे जाते हैं l एक तो मात्र वह हैं जो कि जैन कुल मे जन्मे है परंतु जैनत्व को धारण नहीं कर पा रहे l अन्यथा आचरण कर रहे हैं, और एक वह है कि जो जैनत्व शब्द को सार्थक कर रहे हैं l

घर में ही वैरागी भरत जी,घर में ही वैरागी l
जड़ वैभव से भिन्न स्वयं में, निज वैभव अनुरागी l

वही जीव धन्य हैं जिन्होंने जैन कुल में जन्म लेकर के जैनत्व को धारण किया है और समस्त संसार के विकल्पों से, घर में रहकर भी घर के समस्त विकल्पों से भिन्न निज ज्ञान तत्व को जानकर, पहचान कर,उसमें ही लीन होने की भावना भायी है l वह जीव तो साक्षात नग्न दिगंबर धरती के देवता पंच परमेष्ठी के पदों में विराजमान समस्त जगत के लिए पूजनीय वंदनीय ही है, जिन्होंने आत्म कल्याण के मार्ग को अपना लिया है l
ज्ञान को ज्ञान में लीन करना ही संयम है l
इसीलिए कहा है कि
भूतकाल हमारे बस में नहीं है क्योंकि शुभ-अशुभ कर्म, तो हम पहले ही कर चुके हैं। हाँ पर यह गारंटी है कि शुभ कर्म करके भविष्य को जरूर सुखमय बना सकते हैं, तो फिर देर क्यों अभी से शुरु हो जाओ l

संसारी की हर पर्याय,संसार को ही बढ़ाती है।

ज्यादा नहीं सीमित बोलने वाले की ज्यादा कीमत होती।

बाहर से लाभ की बुद्धि,व्यक्ति को अंदर झाँकने ही नहीं देती।

जिसको हित की पड़ी है,उसको किसी की नही पड़ी है।

थकान दूर करने के लिए अपना मकान ही शरण होता है।

आत्मा जैसा पवित्र भगवान इस देह में रहे ये शोभता नहीं।

हित का समय खोना अर्थात अनंत काल रोना।

दर्द हुए बिना कोई दवा नहीं खोजता है।
पुण्य के उदय बिना,दुआ भी दवा नही बन पाती है।

मोहि का जीवन अर्थात रात्रि ( घनघोर अंधेरा )ll

दिल में जोश खूँ में,इंकलाब चाहिए, आंधियों से जूझने का ताव चाहिए l
देव एक,तीर्थ एक,मंत्र एक है, जैन फिर जुदा है क्यों जवाब चाहिए ll
पंथ सौ सही, हम जुदा नहीं सबको मिलके ये प्रमाण दो l
धर्म की अखंडता, खंड खंड हो रही,
राष्ट्र की अखंडता, खंड खंड हो रही,
एकता का तुम प्रमाण दो,
जैन एकता का दान दो
धर्म प्रेमियों, ज्ञानी बंधुओं,धर्म की दशा पे ध्यान दो l
धर्म की अखंडता खंड खंड हो रही, एकता का सब को दान दो
ll
करो हर वो काम कि दुनिया गले लगा के चले ll
गुजरे गली से फरिश्ता भी तो सर झुका के चले ll
हराम की दौलत को, घर में न लाना कभी ll
जो चाहते हो कि गर , औलाद सर उठा के चले ll
आज संस्कार की कमी से एक-दूसरे से जुड़ता और जोड़ता कौन है l सभी तोड़ने मे लगे है l

पुरानी एकता को इस नई ताकत से मत तौलो
ये संबंधो की तुरपाई है, षड़यंत्रओ से मत खोलो ll

हम भेद मतों के समझे पर, आपस मे कोई मत भेद न हो l

ऐसे आचरण करे जिन पर कभी खेद न हो,कोई छोभ न हो l
वह कर्म करें जिन कर्मों से,
सारे संसार का मंगल हो
हम नहीं दिगंबर श्वेतांबर तेरापंथी स्थानकवासी l
हम एक देव के अनुयाई हम एक देव के विश्वासी ll
हम जैनी अपना, धर्म जैन, इतना ही केवल परिचय हो l
हम यही कामना करते है