क्षेत्रपाल, चण्डिका आदि के अराधन से कोई फल क्यों नहीं मिलता? रावण, कौरवों, कंस की विद्या सब बेकार

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सान्ध्य महालक्ष्मी / 13 नवंबर 2021
आचार्य श्री नेमिचन्द्र जी द्वारा रचित ब्रह्द्द्रव्य संग्रहः की विद्वान श्री जवाहर लाल शास्त्री द्वारा 41वीं गाथा में सम्यग्ज्ञान को परिभाषित करते हुए, 25 मल/ दोषों से रहित सम्यग्ज्ञान की आराधना में तीन मूढ़ताओं को संक्षेप से विवरण पृष्ठ 150-151 पर किया है। जैसे सभी जानते हैं, पहली मूढ़ता है देव मूढ़ता। लिखा है कि क्षुधा, तृषा आदि 18 दोषों से रहित, अनंत ज्ञान आदि चारों अनंत गुणों सहित जो श्री वीतराग सर्वज्ञ देव हैं, उनके स्वरूप को नहीं जानते हुए जीव लोक में प्रसिद्धता, पूजा, लाभ, रूप, लावण्य, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री, राज्य आदि की संपदा को प्राप्त करने के लिये (क्योंकि आज हम मोक्ष लक्ष्मी, आदि की तो चाह तो रखते ही नहीं है, हमें तो सांसारिक लक्ष्मी यानि लौकिक संपदा की ही सदा भूख रहती है। इनको प्राप्त करने के लिए जो राग-द्वेष से युक्त और आर्त्त तथा रौद्र ध्यान रूप परिणामों के धारक क्षेत्रपाल, चंडिका आदि मिथ्यादृष्टि देवों के आराधन को ही देवमूढ़ता कहा है।

स्पष्ट लिखा है कि ये क्षेत्रपाल, चंद्रिका आदि देव कुछ भी फल नहीं देते हैं। अब आपका सवाल तुरंत आएगा कि फल कैसे नहीं देते हैं?

इसका स्पष्ट निराकरण देते हुए लिखा है कि तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ के समय में रावण ने श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मण जी के विनाश के लिये, उन्हें मारने के लिये बहुरूपणि विद्या सिद्ध की थी और तीर्थंकर श्री नेमिनाथ जी के काल में हस्तिनापुर पर राज करने वाले कौरवों ने पांडवों का मूल से, जड़ से नाश करने के लिए, अर्थ कात्यायनी विद्या सिद्ध की थी। उसी काल में उससे पूर्व मथुरा पर राज कर रहे कंस ने भी श्रीकृष्ण नारायण के नाश के लिये, उन्हें मारने के लिये बुहत सी विद्याओं की आराधना की थी।

पर उनमें से कोई भी मिथ्यादृष्टि देवी-देवता श्री रामचन्द्रजी, श्री लक्ष्मणजी, श्री कृष्णजी, श्री युधिष्ठर आदि पांडवों का कुछ भी बिगाड़ नहीं पाये, अनिष्ट नहीं कर पाये, क्यों? इसलिये नहीं कि, इन्होंने भी कोई देवी-देवता की आराधना की थी, बल्कि विभिन्न सम्यग्दर्शन से उपार्जित जो पूर्व भव का पुण्य है, उससे ही उन सबके विघ्न दूर होते गये।

संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि सम्यक्त्व के बिना विष से मिले हुए दूध के समान ज्ञान, तपश्चरणादि सब बेकार है। यानि जो जिनेन्द्र देव ने कहा वही यह है, जिस प्रकार से जिनेन्द्र देव ने कहा, उसी प्रकार से यह है। ज्ञान तो गौतम, अग्निभूति, वायुभूति को भी था – तीनों ही को, चारों वेद, ज्योतिष्क व्याकरण आदि 6 अंग, मनुस्मृति आदि 18 स्मृति शास्त्र, महाभारत आदि 18 पुराण, मीमांसा न्यायविस्तर इत्यादि समस्त लौकिक शास्त्रों का ज्ञान था, पर वह सम्यग्दर्शन के बिना मिथ्या ज्ञान ही था।

तब श्री वर्धमान महावीर स्वामी जी के समोशरण में गये और मात्र मानस्तम्भ देखने मात्र से ही दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय (आगम भाषा से) के क्षयोपशम से उनका मिथ्यात्व नाश को प्राप्त हो गया और उसी क्षण उनका मिथ्या ज्ञान, सम्यग्ज्ञान हो गया। तीर्थंकर श्री वर्द्धमान स्वामी से दीक्षा धारण की और फिर चार ज्ञान की प्राप्ति हो गई।