मात्र 100 शब्दों का था भगवान महावीर स्वामी का अंतिम प्रवचन (दिव्य ध्वनि)

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इस धरा पर रहते हुए कोई अमर नहीं हुआ, हां, यहां रह कर अनेक इतना पुण्य संचित कर लेते हैं कि यहां की आयु पूर्ण कर स्वर्ग में अमर हो जाते हंै और उनमें से कई बिरले तो ऐसे होते हैं जो अमर तो छोड़ो, परमानेंट यह जन्म मरण के चक्कर से छुट्टी पा लेते हैं।

ऐसे ही थे वर्धमान, 30 वर्ष तक ज्ञान की अलख जगाकर वे समझ गये कि अब परमानेंट विराम का वक्त आ गया है और उन्होंने पिछली लकीर पर न चलकर एक नई राह बना दी। नहीं गये वे शांत, एकांत पर्वतों के शिखर पर, जैसे वृषभदेव चले गये कैलाश पर्वत पर, वासुपूज्य ठहर गये मंदारगिरी पर, नेमिनाथ रूक गये वहीं जहां विवाह का मंडप छोड़ा था और चढ़ गये थे गिरनार, महावीर नहीं चढ़े किसी शिखर पर, वह जानते थे कि अब कोई और तीर्थंकर इस युग में नहीं आने वाला और 21 हजार वर्ष धर्मरथ को खींचना है इन्हें, तो इन्हीं के बीच रहते क्यों न जाऊं।

हां वो दिन था 13 अक्टूबर, रविवार, आप लोगों की छुट्टी का दिन, उन्होंने उस दिन इस जन्म मरण से छुट्टी लेने का फैसला कर लिया था, अंग्रेजी कलेण्डर की तारीखों को शुरू होने में अभी 527 बरस बचे थे, धन्य तेरस में, वे पावापुरी के सुंदर फल पुष्पों से शोभित उपवन में मनोहर तालाब के बीचो बीच वे प्रतिमायोग में खड़े होते, उससे पूर्व उन्होंने अंतिम बार ओकांर रूप में संक्षिप्त उपदेश दिया, वह एक-एक शब्द महाग्रंथ की रचना के लिये काफी था।

ओंकार रूपी दिव्य ध्वनि हमारी भाषा में रूपातंरित होते हुये कह रही थी-
‘भो भव्यात्माओं, यदि तुम्हें सच्चा सुख प्राप्त करना है, तो सम्यक दर्शन को धारण करो और सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र रूपी, रत्नत्रय का पालन करो। क्रोध, मान, माया, लोभ ये तुम्हारे असली शत्रु हैं। इन पर विजय प्राप्त करके अरिहंत बनो। जीव अन्य है, पुद्गल अन्य है, यह तत्व हृदय में अच्छी तरह से धारण करो। तुम चैतन्य पुंज आत्मा हो, अहिंसा के द्वारा, तुम मोह शत्रु को, नष्ट करके, सिद्ध पदवी को प्राप्त कर सकते हो। संयम को धारण करने में तनिक भी मत डरो। अहिंसा की अराधना को त्रिकाल में भी न भूलो। स्वयं जीओ, और सबको जीने दो। प्राणी की रक्षा करना, तुम्हारा कर्तव्य है’

और फिर वे सदा के लिए मौन हो गये और दो दिन के प्रतिमा योग के बाद मंगलवार 15 अक्टूबर 527 ई.पू., कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की समाप्त होती रात्रि और अमावस के दिन की सूरज की किरणें फूटने से पूर्व सबके देखते, एक समय में सिद्धालय पहुंच गये।