प्राचीन भारत में जैन, बौद्ध, वैदिक, शैव, वैष्णव और कई अन्य धर्म-संप्रदाय समय समय पर एक दुसरे के विरोध में खडे हुए थे. इस विरोध के पीछे आपसी प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या व अपने मत का आग्रह आदि कई कारण थे. कई बार यह विरोध बडे संघर्ष का रूप लेता था.
जब हम इसकी टाईम लाइन देखते हैं, तो दिखाई देता है कि प्राचीन काल में यह संघर्ष वैदिक, जैन और बौद्धों में होता रहता था. उस समय इनके अलावा और भी कई छोटे-मोटे मत-सम्प्रदाय थे, जो इस संघर्ष में नष्ट हो गए. यह संघर्ष आगे भी चलता रहा. ईसा की 5 वी सदी के बाद शैव और वैष्णव इन दोनों सम्प्रदायों ने जोर पकड़ लिया. राजाश्रय होने के कारण यह दोनों सम्प्रदाय फलते-फूलते गए. लेकिन बाद में इन दोनों सम्प्रदायों पर कट्टरता इतनी हावी हो गयी की यह एक दूसरे के विरोध में खड़े हो गए. इसका भयानक रूप ज्यादातर दक्षिण भारत में दिखाई दिया. दंगे, लढाईयां तक होने लगी.
दक्षिण भारत में शैव और वैष्णवों में संघर्ष तो था ही, लेकिन साथ ही वैष्णवों का जैनियों और बौद्धों से, शैवों का जैनियों और बौद्धों से, जैनियों का शैवों, वैष्णवों और बौद्धों से, और बौद्धों का शैवों, वैष्णवों और जैनियों से संघर्ष होता रहता था. इस संघर्ष में दक्षिण भारत से बौद्ध धर्म लगभग नष्ट हो गया. जैन धर्म को भी बड़ी हानि पहुंची, लेकिन यह धर्म अपने अस्तित्व को बनाये रखने में कामयाब हुआ. इतना ही नहीं, संघर्ष के बावजूद भी कर्नाटक और दक्षिण महाराष्ट्र में जैन धर्म फलता-फूलता रहा.
अब सवाल यह है कि क्या जैन-शैव या जैन-वैष्णव संघर्ष जैन और हिन्दुओं के बीच का संघर्ष था? अगर आप मानते हैं कि यह संघर्ष जैन और हिन्दुओं के बीच था, तो शैव-वैष्णव संघर्ष के बारे में आप क्या कहेंगे?
वास्तवता यह है कि उस समय हिंदू नाम का कोई धर्म नहीं था और हिंदू इस शब्द का प्रयोग किसी भी धर्म के लिए प्रचलित नहीं हुआ था. इसलिए जैन-शैव या जैन वैष्णव संघर्ष को जैन और हिन्दुओं के बीच का संघर्ष कहना एक बड़ी गलती है. यह गलती कई जैन विद्वान करते हैं, और कई हिन्दू विद्वान् भी करते है. उधर बौद्ध विद्वानों ने भी शैव-बौद्ध और वैष्णव-बौद्ध संघर्ष को बौद्ध-हिन्दू संघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया है.
हमें इस बात को भी ध्यान रखना चाहिए कि उस काल में किसी भी व्यक्ति का जैन से शैव या वैष्णव होना, शैव से जैन या वैष्णव होना, वैष्णव से शैव या जैन होना एक आम बात थी. एक ही घर में एक भाई शैव, एक भाई जैन, एक भाई वैष्णव होता था. पति शैव पत्नि जैन, या पति जैन पत्नि वैष्णव जैसी बातें भी आम होती थी. इसके कई उदाहरण तत्कालीन साहित्य और शिलालेखों में दिखाई देते है. इतिहास साक्षी है कि कई राजवंशों में शैव और जैन इन दोनों धर्मों का पालन किया जाता था. मतलब यह हो गया कि समाज के तौर पर जैन-शैव-वैष्णव एक ही थे. आज की वास्तवता भी यह है कि आज भी समाज के तौर पर जैन-वैष्णव-शैव एक ही है.
मै इसके कुछ बड़े उदाहरण देना चाहूंगा.
* गुजरात जैसे प्रदेशों में जैन और वैष्णवों में विवाह होना एक आम बात है.
* अग्रवाल यह उत्तर भारत की एक प्रसिद्ध जाति है. इस समाज के कुछ परिवार वैष्णव होते है और कुछ जैन. इस समाज में भी जैन-वैष्णव विवाह एक आम बात है.
* पूरे भारत में, विशेष कर पश्चिम और दक्षिण भारत में कई ऐसी जातियां हैं जिनमें से ज्यादातर लोग शैव या वैष्णव होते हैं, लेकिन ऐसी जाति का एक छोटा समूह जैन धर्मावलम्बी होता है. दूसरी ओर कई ऐसी भी जातियां हैं, जिनमेँ ज्यादातर लोग जैन होते हैं, और उस जाती का छोटासा समूह वैष्णव या जैन होता है.
* एक बड़ा उदाहरण यह है कि आजकल जितने भी जैन मुनि और आचार्य हैं, उनमें से कई जन्म से शैव या वैष्णव है.
* उसी प्रकार आजकल के शैव या वैष्णव साधुओं में कुछ साधू जन्म से जैन है.
* जैन साधुओं का शैव और वैष्णव तीर्थो पर जाना और शैव या वैष्णव साधुओं का जैन तीर्थो पर जाना एक आम बात है.
* शैव-वैष्णव-जैन के समन्वय का एक बड़ा उदाहरण है कर्नाटक का प्रसिद्ध शैव तीर्थ क्षेत्र धर्मस्थळ. यहां भगवान मंजुनाथ का मंदिर है. मंजुनाथ शिव का एक रूप है. शैव मंदिर होने के बावजूद इसके सर्वोच्च धर्माधिकारी परंपरा से हेग्गडे इस जैन घराने से होते हैं. इस समय के धर्माधिकारी पद्मभूषण डॉक्टर डी. वीरेंद्र हेग्गडे जी हैं. यह जैन धर्मावलम्बी है. इस मंदिर का व्यवस्थापन वैष्णव लोग करते है.
* विशेष बात यह है कि पद्मभूषण डॉक्टर डी. वीरेंद्र हेग्गडे जी बंट समाज से है. बंट समाज कर्नाटक का एक प्रसिद्ध समाज है, जिसे शेट्टी नाम से भी जाना जाता है. बंट समाज में ज्यादातर लोग शैव है, कई लोग वैष्णव भी हैं और कुछ लोग जैन भी है.
-महावीर सांगलीकर