नेतृत्वहीन श्रमण संघ, विद्वत वर्ग, श्रावक समाज ,नहीं गूंजती बंटे सुरों की कभी आवाज, मोदी सब बनना चाहते,पर मिलना नहीं चाहते

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सान्ध्य महालक्ष्मी
15 अगस्त 1947 को विभाजन के बाद ‘भारत’ 584 छोटी बड़ी रियासतों में बंटा था, तब सरदार बल्लभ भाई पटेल ने कमान संभाली सबको एक करने की, आज से 75 वर्ष पूर्व जिस एकता को नींव की रखा गया, उसी को आधार बना कर आज भारत उस ऊंचाई पर खड़ा हो पाया है कि आज उसका नाम अमरीका – चीन – रूस जैसे विकसित देशों के समकक्ष रखा जाता है। यही भारत, अगर सैकड़ों रियासतों में बंटा होता, तो दूसरे नं. के सर्वाधिक आबादी वाले भारत को इन 75 सालों में अनेक बार लूटा गया होता और कई में बंटा होता।
28 राज्यों और 8 कन्द्रशासित प्रदेशों के भारत का आज विश्व में डंका बोलता है, किसलिये? केवल एकता और अखंडता तथा साथ ही कुशल नेतृत्व के कारण। यही कारण है कि वैश्विक महामारी के कठिन दौर से जब अमरीका जैसा विकसित देश जहां जूझ रहा है, वहां भारत विकास की पटरी पर बढ़ने लगा है।
अब चाहे वो कोई राष्ट्र हो या समाज, बिना कुशल नेतृत्व के, ना उसकी क्षमता दिखती है और ना ही एकता। अरे बिखरी हुई तीलियों से घर की सफाई नहीं हो पाती।

हमें ही नहीं मालूम, हम जैन हैं

2021 की गणना शुरू होने वाली है, 2011 जनगणना के अनुसार हमारी गिनती 44,51,753 पर सिमट कर रह गई। बड़ी संख्या में लोगों ने जैनत्व को छोड़ा, किसी ने दबाव में, किसी ने ऐशोआराम के नाम पर। और बड़ी संख्या आज भी उस भूल के साथ जी रही है कि जैन तो हिन्दू की एक शाखा है। अफसोस होता है कि हम अपने धर्म की ऐतिहासिकता – प्राचीनता – वैभवता को भी जानने में असफल रहते हैं, पर कमी कहां पर है? शायद उन्हें वो सही ‘टीचर’ ही नहीं मिल पाया जो उन्हें समझा सके।

कितने खंड खंड हुए हम, किसी को नहीं पता

44,51,753 की संख्या में शायद एक भी जैन नहीं होगा जो बता सके कि जैन समाज कितने सम्प्रदाय, कितने पंथों में बंटा हुआ है। यह सवाल हर भारतीय जहन में भी उतना ही कठिन था, जब आजादी के समय पूछा गया कि भारत कितनी रियासतों में बंटा है।
अब जैन समाज की बात पर केन्द्रित होते हैं – दो मुख्य सम्प्रदाय दिगम्बर और श्वेताम्बर, इनके अंदर कितने बंट गये, इसकी सही गिनती शायद कोई नहीं बतायेगा, क्योंकि जब तक वह सोचकर बतायेगा, तब तक एक और बढ़ गई होगी।

भाई-भाई आपस में लड़ते,फिर कैसे एकता की बात करते

आज भाई-भाई ही अपने तीर्थों पर अधिकार के लिये लड़ रहे हैं। आदि से महावीर स्वामी जी तक भी, जिनको मानने वाले शायद पहले भी बंटे हुये होंगे, पर इस तरह लड़ते नहीं होंगे। खैर वो चौथा काल था और यह पंचम काल। हां, यही कह कर हम, अपने अवगुण को ढक लेते हैं। जैसे इस धरा पर स्वर्ग की अनुभूति हो सकती है, तो चतुर्थ काल की क्यों नहीं?

राजनीतिक धरा से पत्ता साफ

आज जैन समाज की राजनीतिक धरा से पूरी तरह पत्ता कट चुका है, यह तब है जब सरकारी खजाने में पांचवां हिस्सा, यही आधा फीसदी लोग भरते हैं। सबसे ज्यादा रोजगार देते हैं, ज्यादातर बड़े उद्योगों पर इनका ही कब्जा है, सबसे ज्यादा शिक्षित हैं, विवादों व हिंसा से दूर रहने वाला शांत स्वभावी समाज है। ऐसा गुणवान समाज आज गुमनामी के दौर से गुजर रहा है। जब किसी की श्रेष्ठता की पहचान राजनीतिक पैमाने से हो, तब जैन समाज सबसे नीचे पायदान पर होता है।

बंटे अनेक, तो कैसे हों एक?

दोनों एक क्यों नहीं हो रहे, इसका सबसे बड़ा कारण दोनों में नेतृत्वहीनता है, कौन किससे बात करे? किसकी सुने? बिना ब्रेक की गाड़ी, बिना लगाम का घोड़ा, बिना अंकुश के गजराज की दशा जैसी होती है, वैसी ही आज जैन समाज की है। इसकी गहराई में जायें, तो एक और बात जहन में रखनी होगी, निचले पायदान पर बैठा बहुसंख्यक श्रावक समाज, जिसे ‘नादान’ की संज्ञा भी दी जा सकता है, ऐसा 90 फीसदी समाज जिसे क्या हो रहा है, उससे अनभिज्ञ रहता है, वह चाहता है कि एक रहे। जैसे घर में किसी को धोती पहनना पसंद है, किसी को पेंट शर्ट, तो किसी को टी शर्ट जींस, कोई हिंदी बोलता है, कोई अंग्रेजी, पर हमें एक होने कौन नहीं देता? हां उसको ढूंढना – तलाश करना मुश्किल है क्योंकि गले में घंटी किसी के नहीं बांधी जा सकती।
अब इन दो विघटन को घर के बीच में खड़ी एक दीवार पर संतोष करके आगे आगे बढ़े तो अब दिगम्बर हिस्से का अवलोकन करते हैं। समाज में तीन वर्ग हैं – सबसे ऊपर संत संघ, बीच में दोनों के बीच पुल की तरह जोड़ने वाला विद्वत वर्ग और नीचे पायदान पर श्रावक समाज। मुख्यत: इन तीन वर्गों में ही बंटा होता है जैन समाज का कोई वर्ग।

आचार्य कहें, हमसे बड़ा कौन,एकता पर सभी मौन

अब इनका कड़वा सच यह है कि लगभग 1500 संतों के लगभग 75 संघ हैं, जो एक नहीं होना चाहते, किसी एक का नेतृत्व उन्हें स्वीकार नहीं। कारण आचार्य परमेष्ठी पद पर हैं, उनके ऊपर अरिहंत हो सकते हैं या सिद्ध। वो दोनों यहां है नहीं, तो इसलिए किसी और की नेतृत्वता उन्हें स्वीकार्य नहीं होती। कोई आगे नहीं आना चाहता, तो कोई पीछे नहीं रहना चाहता। कड़वा सच तो यह है कि अपने खास भक्तों के बीच छींटाकशी भी खूब की जाती है। प्रवचनों में दुर्वचनों की पटुता का इस तरह ही इस्तेमाल होता है जैसे दूध में दूधिया पानी मिलाता है।

विद्वत वर्ग किसे नेता बनाए,जब खुद ही बंटते जाएं

बीच में है विद्वत वर्ग, इनकी संख्या लगभग हजार-डेढ़ हजार होगी, और संस्थायें 50-60, इनकी गिनती बहुत तेजी से बढ़ रही है। एक को दो, दो की चार होने में ज्यादा समय नहीं लगता। ज्यादा ज्ञानी होना भी नुकसानदेह है, इस वर्ग पर खूब चरितार्थ होता है। अंदर की बात तो यह है कि इस वर्ग में अपनी अपनी समिति के नेतृत्व को ही सारे नहीं मानते, दूसरे नेतृत्व की तो बहुत दूर की बात है। अपनी महत्वकांक्षाओं का जोर पकड़ते ही, एक नई समिति खड़ी हो जाती है।

खुद कुछ आता नहीं, दूसरा हमें भाता नहीं
और नीचे पायदान पर श्रावक समाज, जिसमें 90 फीसदी को ज्यादा कुछ मतलब नहीं, पर कमान उनके हाथ में नहीं, शेष 10 फीसदी के हाथ में रहती है और उनकी लगाम टॉप, संत वर्ग के पास। आज संतवाद को बढ़ावा, इसी दस फीसदी ने देकर, एकता पर खूब चोट की है।
यही तीनों वर्ग में नेतृत्व हो, पर उसे दूसरे का नेतृत्व स्वीकार्य नहीं, और अपने में वो ‘गुण’ नहीं, कि तीन टांग की कुर्सी पर संभल कर बैठ भी सकें।

मोदी सब बनना चाहते,पर मिलना नहीं चाहते

तिलांजलि देनी होगी अपनी-अपनी महत्वकांक्षाओं की, यह नहीं कि हमारे समाज में कोई मोदी नहीं। दिक्कत यह है कि हमारे समाज में एक नहीं, कई मोदी बनना चाहते हैं। आज हमारे बिखरने, टूटने, लुटने, पिटने, छिनने का सबसे बड़ा कारण है नेतृत्वहीनता।

क्या कोई समझेगा, तिलांजलि देगा, अपनी आकांक्षाओं की, झुकना पहले सबको होगा, तभी उठा हुआ एक नजर आ पाएगा। अगर महावीर शासन को फिर बुलंदी पर लाना है, तो ‘त्याग धर्म’ को अपनाना होगा, परिग्रह रूपी महत्वकांक्षाओं को शून्यता पर लाना होगा, अपनी पद और मद की इच्छाओं पर संयम रखना होगा, यानि दूसरे के नेतृत्व को स्वीकारना होगा। हर काम में अंगुली डालने, दूसरे की कुर्सी की टांग खींचने, अपनी मूंछ मरोड़ने से बाज आना होगा।

जिस दिन हमने एक झण्डे के नीचे, एक नेतृत्व के नीचे जीना सीख लिया, उस दिन की अगली सुबह का सूरज वो स्वर्णिम किरणें बिखेरगा, जिसकी रोशनी को देखकर पूरा देश ही नहीं, पूरा विश्व गदगद हो जाएगा। महावीर स्वामी का जिनशासन, धरा से गगन तक, हवा की तरह हर कोने-कोने में पहुंच जाएगा। गिनती में 40 करोड़ ना पहुंचे, पर जैनत्व का लोहा मानने 400 करोड़ जरूर होंगे।
क्या हम तैयार हैं दूसरे के नेतृत्व में, आगे बढ़ने के लिये….
( शरद जैन, संपादक)

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