एक दिन आचार्यश्री के गले में अचानक दर्द होने लगा।2-3 दिन बहुत वेदना रही।दिनभर तो हम लोग महाराज जी के पास बैठकर तत्व चर्चा आदि करते सो उनका मन लगा रहता था।लेकिन रात्रि में मात्र 2-3 महाराज आचार्यश्री के पास रहते थे।पर आचार्यश्री को दर्द के कारण नींद नहीं आई थी, आँखें भरीभरी-सी दिख रही थी। प्रात:काल जाकर आचार्यश्री के चेहरे को देखा,तो सहज ही पूछ लिया-लगता है आज आपको रात्रि में नींद नहीं आई?आचार्यश्री के चेहरे पर मुस्कान बिखर गई, पर वे मौन रहे।
हमने पुनःपूछा-“बिल्कुल नींद नहीं आई?समझ में नहीं आता कैसा दर्द है?”आचार्यश्री हँसते हुए बोले-‘कैसा दर्द है नहीं अपना दर्द है।अपने ही तो कर्म हैं,तो उसका फल भी तो हमें भी भोगना पड़ेगा।पुनः पूछा-‘जब रात्रि में दर्द होता था,तब क्या करते थे? आचार्यश्री-कुछ नहीं सहन करता था।जब दर्द बहुत तेज होता था तो बैठ जाता था,कम हुआ तो लेट जाता था।नींद की प्रतीक्षा करता रहता था।”नींद कैसे होती है”हमारे पास सोने वालों को देखता था,देखो ये कैसे सो रहे हैं। इन लोगों की नींद लगी रहती थी, मैं बैठा-बैठा देखता था,फिर संकेतों में बोले-उस समय एक चीज हमारा बहुत जरूरी साथ दे रही थी।
हम लोगों ने पूछा-“क्या साथ दे रही थी?”आचार्यश्री-घड़ी की टिक-टिक आवाज साथ दे रही थी।हमने पूछा- ‘कैसे साथ दे रही थी आचार्यश्रीजी ये घड़ी की टिक-टिक?आचार्यश्री-मैं घड़ी को देखता रहता और मन में सोचता था,देखो ये घड़ी निरन्तर चल रही है,चलायमान है।इस कालद्रव्य को रोका नहीं जा सकता है।हमने भी सोचा कि हमारे असाता वेदनीय कर्म इस घड़ी के अनुसार चल रहे हैं।निकलने दो अपने ही कर्म हैं। यही सोचते-सोचते इसी दौरान साता वेदनीय कर्म का उदय आ गया और थोड़ी देर के लिए नींद आ गई।
हम लोगों ने पूछा-आप इतने दर्द में भी ऐसा चिंतन कर लेते हैं?’आचार्यश्री-अरे भैया!ऐसा ही चिंतन करना चाहिए।दुख के समय कोई साथ नहीं देता है, अपना चिंतन ही हमारे साथ रहता है।कोई,यदि साथ दे भी दे तो दर्द नहीं मिटा सकता है।अपना साता वेदनीय कर्म उदय हो तो बाह्य निमित्त साथ देते हैं और यदि नहीं हो तो कोई कुछ कर ले,कोई साथ नहीं देता है।इस प्रकार दर्द में भी चिंतन के मर्म की गहराई में डुबकी लगाई जाती है आचार्यश्री के द्वारा!
–मुनीश्री १०८ कुंथुसागर जी महाराज!