लौकिक कामनाओं और लोभ के उद्देश्य से की गई भक्ति भी उल्टा पाप का ही बंध करती है
चतुर्थ दिवस – उत्तम शौच (उत्तम-सउचं)
सउचं अप्पसहावो लोहाभावे य जायइ अप्पम्मि ।
मिच्छत्तस्साभावे जहा य सम्मत्तं हवइ अप्पम्मि ।।
शौच आत्मा का स्वभाव है , वह लोभ कषाय के अभाव स्वरूप आत्मा में उत्पन्न होता है जैसे मिथ्यात्व के अभाव में सम्यक्तत्व आत्मा में प्रगट होता है ।
दशलक्षण में प्रारंभ के चार धर्म क्रोध , मान, माया, लोभ – इन चार कषायों के अभाव स्वरूप आत्मा में प्रगट होते हैं । पहले दिन क्रोध का अभाव कर क्षमा , दूसरे दिन मान का अभाव कर मार्दव तथा तीसरे दिन माया का अभाव करके आर्जव धर्म प्रगट किया । उसी क्रम में चौथे दिन लोभ कषाय का अभाव करके शौच धर्म प्रगट किया जाता है ।
शुचेर्भाव: शौचम् अर्थात् शुचिता या पवित्रता का नाम शौच है । जीवन में जैसे जैसे लोभ कम होने लगता है वैसे वैसे शुचिता प्रगट होने लगती है ।लोभ की एक बड़ी विशेषता यह है कि लोभी व्यक्ति जरूरत पड़ने पर क्रोध को दबा लेता है , मान को भी भूल जाता है और माया को भी रोक देता है …बस काम बनना चाहिए । दृढ़ लोभी कभी लक्ष्य से हटते नहीं हैं ।
इसलिए अकेले लोभ का अभाव शौच नहीं है बल्कि क्रोध ,मान, माया, लोभ – इन चारों कषायों के अभाव का नाम पवित्रता है ।लोभ को पाप का बाप कहा गया है । क्यों कि इसके वशीभूत होकर ही मनुष्य पाप करता है ।
यह लोभ ही है जो मनुष्य पाखंड में भी धर्म मानने लगता है ।भगवती आराधना ग्रंथ में लिखा है कि लोभ करने पर भी पुण्य से रहित मनुष्य को कुछ नहीं मिलता और पुण्य वान को बिना लोभ के भी सब कुछ सहज मिल जाता है ।
लोभ के कारण हम अपनों से ही बैर कर बैठते हैं । जो धर्म हमें लोभ त्यागने की शिक्षा देता है , उस धर्म की पालना भी हम यदि किसी लौकिक लोभ के वशीभूत होकर करें तो यह कितना विसंगतिपूर्ण होगा ?यह तथ्य किस दिन समझ में आएगा कि लौकिक कामनाओं और लोभ के उद्देश्य से की गई भक्ति भी उल्टा पाप का ही बंध करती है ।
लोभ और कामना से रहित होकर हम आत्मा की आराधना करें यही पवित्रता अर्थात् शुचिता है और शौच धर्म है ।
प्रो.डॉ.अनेकांत कुमार जैन