समरसी भाव,सामाजिक समरसता कारण ही,आर्जव धर्म है -मुनिश्री विलोक सागर जी
क्रोध, मान मायाचारी और लोभ के त्याग पूर्वक ही संयम आदिक धर्म प्रगट होते है, मात्र कोरी पूजन से कुछ नहीं होने वाला , मायाचारी श्रावक करें या त्यागी व्रती करें, दुःख दायी ही है l
कपट न कीजे कोय चोरन के पुर न बसें l
सरल स्वभावी होय, ताके घर बहु सम्पदा ll
उत्तम आर्जव रीति बखानी, रंचक दगा बहुत दुःख दानी l
करिये सरल तिहु योग अपने, देख निर्मल आरसी l
मुख करें जैसा, लखे तैसा, कपट प्रीति अंगार सी l
नहीं लहै लक्ष्मी, अधिक छल करी,
करम बंध विशेषता l
भय त्याग दूध बिलाव पीवे, आपदा नहीं देखता l
प्रत्येक प्राणी में विद्यमान समरसी भाव सामाजिक समरसता का आधार है l यही द्रव्य दृष्टि है l और पर्याय दृष्टि ही कषाय का आधार है l
उत्तम आर्जव-धर्म :
उत्तम आर्जव कपट मिटावे
दुर्गति त्यागि सुगति उपजावें
अर्थात् उत्तम आर्जव धर्म अपनाने से मन एकदम निष्कपट,निश्छल तथा राग-द्वेष से रहित हो जाता है। सरल हृदय व्यक्ति सुयश व सुगति को प्राप्त करता हैं।
जिनकी कमर सीधी है अर्थात जो योगी है वही निष्कपट होते हैं ll
मन काला तन उजला, बगुले जैसी टेक l
उससे तो कौवा भलो, अंदर बाहर एक ll
जो धरमात्मा है, सो कपटी नहीं l
जो कपटी है, सो धर्मात्मा नाही ll
मायचारी पूर्वक अपनी गलती पर पर्दा न डालना, छुपाना नहीं =आर्जव धर्म हैl
मायाचारी अर्थात त्रियंच होने की तैयारी।
माया सबसे ज्यादा मायाचारी को ही कष्ट देती है।माया शल्य है ये जीव को घुन की तरह खा जाती है।
जो जैसा है उसे वैसा न मानकर अन्य मानना ही तो मायाचारी है।
अकर्ता को,कर्ता मानना ही तो मायाचारी है।
माया अर्थात शांति का सफाया।
ध्रुव होकर भी अपने को एक समय की पर्याय मात्र मानना ही तो मायाचारी है।
मायाचारी अर्थात सबसे अविश्वासनीय व्यक्ति।
मायाचार छिपता नही,खुल कर दिखता है।मायाचारी छिपाना,स्वयं मायाचारी है।
माया को छिपाने का नही मिटाने का प्रयास करो।
कार्य माया से नहीं,पूर्व पुण्य से ही होते हैं।
भगवान होकर भी अपने को पुरुष मानना मायाचारी है l
परवाच्येषु निपुण: सर्वो भवति सर्वदा,
आत्मवाच्यं न जानीते जानन्नपि च मुह्मति ।।
हर एक मनुष्य दुसरों के दोष दिखाने में प्रविण होता है । अपने स्वयं के दोष या तो उसे नजर नही आते, या फिर वह उन दोषों को देख ही मुँह फेरता है ।
धन्यवाद देना और माफ़ी माँगना,
यह दो गुण जिनके पास होते है
वह सबके क़रीब, और सबके लिए प्रिय होते है ।
वास्तव के धर्मात्माओं की संख्या उंगलियों पर गिनने लायक है।।
दस धर्म का दर्शन आखों से नहीं कर सकते है।।।कर्तत्व की कणिका को निकाल कर अलग फेंकना पड़ेगा , मान को निकाल कर अलग फेंकना पड़ेगा।।
हर एक जीव की इच्छा पूरी हो जाएं तो पूरे विश्व का नाश हो जायेगा क्योंकि शत्रु देश तो चाहेगा लेकिन हे शत्रु तेरी इच्छा से किसी का मरण नहिं होगा मित्र !!आयु कर्म के क्षयसे ही जीव की मृत्यु होगी।
इच्छित कार्य की सिद्धि धर्म नहीं है स्वरूप की लीनता ही धर्म है।
भूखे को भोजन कोई करा सकता है, रुकने के व्यवस्था हर कोई कर सकता है।
गिरते भावों की रक्षा स्वयं को करना ही पड़ेगाl
छल कपट को कराने वाली कोई वस्तु है उसका नाम इच्छा है।
इच्छा की पूर्ति की इच्छा समाप्त हो जाये तो मायाचारी अपने आप समाप्त जाय lहो विराट से विराट वृक्ष,एक मात्र हींग से सुख जाता है l ऐसे ही एक दिन की आज्ञा का पालन न करे, तो सम्राट रूठ जाता है।
जहां जहां कषाय है वहाँ वहाँ आत्मा की हत्या हो रही है।
मल किसी का भी वह तो मल ही है ऐसे ही कषाय किसी की भी हो वह कषाय ही है।।
हमारी दृष्टि ही हमारी सृष्टि का निर्माण करती है। यदि आप गुणों व गुणियों का सम्मान करोगे तो गुणी बनोगे अन्यथा……