जैन धर्म में प्रचलित #रोटतीज_व्रत कथा

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एक समय विपुलाचल पर श्री‍ वर्धमान स्वामी समवशरण सहित पधारे। तब राजा श्रेणिक ने नमस्कार करके हाथ जोड़कर प्रार्थना करी, कि महाराज! रोट तीज व्रत कैसा और इस व्रत से किसको लाभ हुआ और यह व्रत कैसे किस विधि से किया जाता है, सो कृपा करके कहो।

तब वर्धमान स्वामी राजा श्रेणिक से कहते, भये राजन्! एक समय उज्जैनी नगरी में एक सागरदत्त नाम का सेठ रहता था। उसके छप्पन करोड़ दीनारों की लक्ष्मी देशांतरों में माल भरकर उसके प्रोहन (जहाज) जाते थे। उस सेठ के सात पुत्र थे। एक दिन श्रीमंदिरजी में एक व्रती मुनिराज ने यती और श्रावक के धर्मों का वर्णन किया। श्रावकों ने अपनी शक्ति के अनुसार व्रत लिए। सागरदत्त की सेठानी ने भी प्रार्थना करी कि महाराज मुझे भी ऐसा सरल व्रत दीजिए, जो कि एक साल में एक ही वक्त आए और उसमें मैं कुछ खा सकूं। श्री मुनिराज ने फरमाया कि हे! सेठानी व्रत-नियम थोड़े से भी इस पामर जीव को संसार में पार लगा देते हैं।

श्री चौबीसा व्रत जिसे रोट तीज भी कहते हैं, साल में एक ही वक्त करना होता है। भाद्रपद शुक्ल तृतीया (तीज) को सामायिक स्नान ध्यान करके चौबीस महाराज की पूजन विधान करना चाहिए।

एक वक्त छहों रस का त्याग करके एकासन और एक ही अन्न से उसी वक्त अन्न और पानी से अंतरायरहित नियमपूर्वक करना चाहिए। इससे लक्ष्मी अटल रहती है। व्रत के दिन कुकथाओं का त्याग करके शील सहित धर्म-ध्यान में लीन रहना चाहिए। चार प्रकार का दान देना चाहिए।

यह व्रत तीन, बारह व चौबीस वर्ष करना चाहिए। श्रावक के षट् कर्म का (देव पूजा, गुरु सेवा, स्वाध्याय, संयम, तप, दान) पालन करना चाहिए। सेठानी श्री गुरु को नमस्कार करके और व्रत लेकर घर आई। घर आकर सेठानी ने अपने कुटुम्ब परिवार से व्रत लेने के विषय में कहा। कुटुम्ब परिवार ने कहा कि फूलों में रखकर कोमल चावल, घी, शकर, मेवा आदि उत्तम पदार्थों के मिश्रण से जो भोजन किया जाता है, वो हजम नहीं होता है तो ऐसा कठोर व्रत कैसे किया जाएगा।

कुटुम्ब परिवार की निंदा से सेठानी ने लिए हुए व्रतों का त्याग कर दिया। व्रत भंग के पापोदय से सर्वलक्ष्मी नष्ट हो गई, मोतियों का पानी हो गया, रत्नों व सोने-चांदी के ढेर थे, वे पत्थर-कंकरों के ढेर हो गए, देशांतरों के प्रोहन (जहाज) जहां के तहां रह गए, धन के अभाव में दास-दासियां भाग गए तथा दिन बड़े ही कष्ट से व्यतीत होने लगे।

तब सेठ, सेठानी और सातों पुत्र और उनकी स्त्रियां इस प्रकार 16 प्राणियों ने देशांतर जाने का विचार किया और उज्जैन नगरी छोड़कर बाहर निकल गए।

हस्तिनापुर में सागरदत्त सेठ की पुत्री परनाई थी। संकट के कुछ दिन काटने की इच्छा से हस्तिनापुर जाकर पुत्री को खबर पहुंचाई कि हमारे ऊपर संकट पड़ गया है, सो तेरे पास मदद के लिए आए हैं, हमारे संकट के कुछ दिन के लिए सहायक होना चाहिए।

पुत्री ने ऐसी बात सुनकर खबर लाने वाले को कहा- मेरे ससुराल वाले यह कहने लग जाएंगे कि हमारा धन चोरी-चोरी कर पीहर पहुंचा देती है अत: मेरे से ऐसा कष्ट सहा नहीं जाएगा इसलिए ये कष्ट के दिन दूसरी जगह जाकर बिताएं और थाली और दाल-भात भोजन की सामग्री, एक वक्त का भोजन और उसमें पांच रत्न छिपाकर भेज दिए।

सेठ के पापोदय और सेठानी के व्रतभंग दोष से वो थाल मिट्टी का बरतन भोजन सामग्री कीड़ों सहित और मोहरों के कोयले बन गए। उसे उसी जगह खड़ा खोदकर उसने गाड़ दिए और बसंतपुर ससुराल थी। वहां कुछ समय कष्ट के दिन काट देने की इच्छा से गए।

उस दिन सागरदत्त सेठ के साले रामजी सेठ के यहां जीमनवार थी। इस जीमनवार की खबर सुनकर उन्होंने विचार किया कि इस वक्त रामजी सेठ के यहां जीमने वास्ते बड़े-बड़े लोग आए होंगे, ऐसी गरीबी अवस्था में हमारा वहां पहुंचना ठीक नहीं होगा और रात के वक्त अंधेरे में चलेंगे।

कई दिनों की भूख से सभी अधीर हो रहे थे। सागरदत्त सेठ की स्त्री ने कहा कि भूख शांति के लिए मैं जाकर थोड़ा सा चावलों का पानी (मांड) जो मकान के पिछवाड़े से नाले में गिर रहा है, ले आती हूं। एक मटकी हांडी ले जाकर नाले के नीचे रख दी।

मकान के ऊपर रामजी सेठ की स्त्री खड़ी देख रही थी। उसने अपनी ननद को ऐसी गरीब हालत में देखकर विचार किया कि इनका धन नष्ट हो गया है और अब यहां हमको सताने आए हैं, ऐसा विचार करते हुए जिस नाले से चावल का मांड जा रहा था, उस नाले में एक पत्थर सरका दिया।

वो पत्थर पड़ने से नीचे रखी मटकी हांडी फूट गई और चावल का गरम-गरम मांड सेठानी के पैरों पर गिर गया जिससे वह जल गई