प्रधानमंत्री स्वयं को प्रधान सेवक कहता है, परंतु अन्य लोग थोड़ा सा भी पद पाकर स्वयं को स्वयंभू और स्वामी समझने लगते है: मुनिश्री विलोकसागर जी

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विलक्षण बुद्धि के लिए स्वाध्याय आवश्यक: मुनिश्री विलोकसागर जी महाराज

आप जो करते हैं, जो बोलते हैं, जो सुनते हैं उसे जब पुनः याद करते हैं तभी अच्छाई और बुराई का ज्ञात होता है । अकेले में याद करते रहेंगे तभी आप त्रुटि का पश्चाताप कर सकते हैं, जिस तरह आप अपने व्यवसाय में किए गए प्रत्येक लेनदेन का हिसाब रखते हैं, कुछ याद करते हैं कुछ लिखकर याद रखते हैं , उसी तरह आपको अपने किए गए कार्यों को भी याद करना चाहिए, स्मृति के सहारे ही मोक्ष मार्ग को प्राप्त कर सकते हैं। सुबह उठते ही हमें प्रतिक्रमण करना चाहिए , प्रतिक्रमण का आशय है अपनी भूलों के लिए ईश्वर से क्षमा मांगना। हमें तीन समय ईश्वर की आराधना करनी चाहिए , कर्मसिद्धांत के अनुसार ऐसे कर्म किए जाएं जो याद रखे जा सके। जिस प्रकार हम बर्तन में रखी हुई वस्तु को मिलाने के लिए बार-बार हिलाते हैं , उसी तरह हमें अपने कर्म – अनुभव को भी बार-बार हिलाते रहना चाहिए , याद रखना चाहिए कि हमसे क्या भूल हुई है ।

वर्तमान शिक्षा प्रणाली में यह दोष है कि हम 6 माह या 3 माह पढ़कर सेमेस्टर परीक्षा दे देते हैं और वापस उस पाठ को फिर कभी नहीं देखते यानी पिछला कुछ भी याद नहीं करते जबकि हमें पढ़े गए पाठ की पुनरावृत्ति करनी चाहिए ताकि विषय को याद रखा जाए और समझा जाए। आचार्य श्री कहते हैं कि बुद्धि को चलाने के लिए उसे धारदार बनाने के लिए बार-बार बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए । आप जितनी बुद्धि को मांजते हैं उतनी ही आपकी बुद्धि विलक्षण होती है इसके लिए स्वाध्याय करना और धर्मोपदेश का श्रवण करना, अध्ययन करना आवश्यक है ।

बच्चों को समझना चाहिए कि पेपर परीक्षा के समय पुराना पढ़ा भी पुनः याद करना चाहिए । हम स्वाध्याय करे, चिंतन करें , याद रखें तभी हमारे विचारों में निर्मलता आएगी । स्वाध्याय में अनुप्रेक्षा सबसे महत्वपूर्ण कारक है जिस तरह बच्चों को बार-बार पुनरावृति कराने से उसकी भ्रांति दूर होती हैं और वह समझदार बनता है। अपनी पुरानी गलतियों को याद रखो ताकि भविष्य में गलती ना हो।

जहाँ रुचि होती है वहाँ परिणाम सहज हो जाते हैं।तारीफ यश प्रकृति की होती है उसे अपनी मानना मिथ्यात्व है।आत्मा क्षयोपशमज्ञान में नहीं,प्रतीति में आती है।निवृति का लाभ उठाइये,प्रवृति में मत भरमाइये।जड़ की कृपा से जीना मरना ये तो जड़जीव है।

शल्य,व्यक्ति को सोने नही देती है।योग्यता,हर व्यक्ति का भवितव्य लिखती।
उलटा सोचने वाले,सीधा जीवन जी ही नही पाते हैं।
जीवन जीने के लिए धन नहीं,तत्व में मन लगना चाहिए।ज्ञानियों का समागम,सारे गम भुला देताहै l
देश का प्रधानमंत्री स्वयं को प्रधान सेवक कहता है, वास्तविक रुप से है भी, यह उनके गंभीर व्यक्तित्व की छाप है l परंतु अन्य लोग थोड़ा सा भी पद पाकर स्वयं को स्वयंभू और स्वामी समझने लगते है l धन्य है बुद्धि विवेक की गंभीरता और अल्पता की महिमा l सही ही कहा है अधजल गगरी छलकत जाए, कम पानी और अल्प ज्ञानी निश्चित रूप से दलदल ही पैदा करते हैं l

जिन मंदिर और छह आयतन शांति और आराधना, भक्ति- ध्यान आदि के स्थान है l हाल- चाल जानने के विवाह आदि जैसे अवसर और स्थान नहीं है l इसीलिए 84अासदना के दोष जिनेन्द्र देव ने बताये हैं l जरा विचार तो करो जी, इन भावों का फल क्या होगा…..

हो नफरत पाप से लेकिन,न पापी से कभी करनाl
गर हो सके तो, धर्म की बू उसमें भर देना l
ये पैगाम है वीर का वन्दे, जग को बता देना l
इस पैगाम को हम, वीर की तस्वीर कहते हैं ll…..
जीवन में अपना व्यक्तित्व शून्य रखिये ताकि कोई उसमें कुछ भी घटा न सके..!
परंतु आप जिसके साथ खड़े हो जाएं उसकी कीमत दस गुना बढ़ जायेl

लय,ताल और स्वर को मिला के संगीत बनता है जो कि कर्णप्रिय मन को शांति दायक और सामाजिक समरसता का कारण है, परंतु तेज आवाज को शोर कहते हैं, अवांछित आवाज भी कह सकते हैं, विज्ञान की भाषा में कहें या प्राकृतिक विज्ञान की भाषा में कहें, अनावश्यक तेज आवाज निश्चित रूप से कान को दुखदाई, मन को दुखदाई होती है, ध्वनि तरंगों की आवृत्ति को वैज्ञानिक मापक हर्टज(hz) में मापा जाता है, एक निश्चित आवृत्ति से अधिक की ध्वनि तरंगे कानों को, शारीरिक स्वास्थ्य को हानिकारक ही होती हैl इसे और विशेषरूप से डॉक्टर और वैज्ञानिक भी बता सकते हैं…..

यह ध्यान रखना कि जो कुछ भी हम संचित करके लाये हैं, उसमें हम अपने वर्तमान के शुभ और अशुभ में बहुत सारे बदलाव करते रहते हैं ।
इसलिये जब भी कर्म करने का मन हो शुभ करना ।*
शुभ को करने से हमारे अशुभ का दबाव घटता है, शुभ का प्रभाव बढ़ने लगता है और अगर हम संचित करके तो शुभ लाये हैं और वर्तमान में अगर अशुभ कर्म करेंगे तो शुभ का प्रभाव घटेगा और अशुभ का बढ़ने लगेगा ।

सजाकर स्तुति थाल सुरभित सुंदर पुष्प माल
अन्नो न कुणइ अहियं, हियं पि अप्पा करेइ न हु अन्नो |
अप्पकयं सुहदुक्खं, भुंजसि ता कीस दिणमुहो ? ||२७||

अन्य कोई जीव अपना अहित नहीं करता है और अपना हित भी आत्मा स्वयं ही करती है, दूसरा कोई नहीं करता है | अपने ही किये कर्मों को – सुख-दुःख को तू भोगता है, तो फिर दीन मुखवाला क्यों बनता है?
बातचीत” यूं तो शब्द ही हैं,पर खुलकर की जाए तो दिलों के कई मैल धुल जाते हैंl