स्वर्णभद्र कूट पर,पारस टोंक पर प्रतिमा ले जाने की सिल्वर जुबली,पहली बार सिद्धचक्र विधान करने की हिम्मत! इसकी शुरूआत करने वाला क्यों गुमनाम

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॰ लगातार 12 वर्ष तक स्वर्णभद्र कूट पर ले जाने का सौभाग्य किसे मिला?
॰ पारस टोंक पर पहली बार सिद्धचक्र विधान करने की हिम्मत किसने दिखाई?
॰ सम्मेद शिखर बचाओ रथ प्रवर्तन की दिल्ली में शुरूआत किसने की?
आज जानिए उस ‘वीर’ गुमनाम को।

सान्ध्य महालक्ष्मी / 20 अगस्त 2021
इस वर्ष मोक्ष सप्तमी यानि 15 अगस्त 2021 को 25 वर्ष पूरे हो गये, मतलब 20 पंथी कोठी से पारस प्रभु की प्रतिमा को ऊपर स्वर्णभद्र कूट पर ले जाने की एक सिल्वर जुबली हो गई, पर किसी को पता नहीं चला। जानकारी तक नहीं किसी के पास, चाहे तीर्थक्षेत्र कमेटी हो या मधुबन की कोई कोठी ही क्यों ना हो। जब नक्सलियों का यहां प्रभाव ज्यादा था और किसी में यह साहस नहीं था कि तलहटी से प्रतिमा ऊपर लेकर जाये, पर एक न वह साहस दिखाया। अपनी जान की परवाह किये बिना, क्योंकि इसके प्राण तो शिखरजी के पारस बाबा में बसते थे। कौन है वो गुमनाम, जिसे भुला दिया आज….

कैसे हुई शुरूआत?

बीस पंथी कोठी से मस्तक पर भगवान को विराजित कर नौ किमी ऊपर पारस टोंक तक ले जाना व ाला कोई दुष्कर कार्य नहीं है, भगवान मस्तक पर हो, तो यह रास्ता अपनी दूरी भी खत्म कर देता है। परन्तु तब नक्सलियों का प्रभाव था। नीचे से प्रतिमा लेकर जाओगे, तो रास्ते में ही मार दिये जाओगे। इस बात की आशंका, यहां के जमीनी हालात जानने वाले हर किसी को थी। ऐसे में कौन यह साहस करे, 1995 तक किसी की हिम्मत नहीं हुई, पर फिर एक 64 वर्षीय ने ऐसा जज्बा दिखाया, जो आज इसका उद्घोषक बन गया।

दिल्ली का वीर ‘श्री’ चल पड़ा
हां, उन्हें उनकी मां ‘श्री’ कहकर ही पुकारती थी। संतों का आशीर्वाद लिया और भगवान के आगे मस्तक रख, संकेत दे दिया, अब तू ही मेरा रखवाला है। यह कहते हुए पारस प्रभु के नारे लगाते हुए उन्होंने 20 पंथी कोठी में विराजमान अष्टधातु की तीर्थंकर प्रतिमा उठाकर मस्तक पर रखी। 1996 की मोक्ष सप्तमी, और पूरी बीसपंथी कोठी पारस प्रभु के जयघोष से आकाश गुंजायमान होने लगा।

कारवां बढ़ा नहीं, सिकुड़ता गया
लगभग 30-40 लोग थे, जो उस 64 वर्षाय श्री का उत्साह बढ़ा रहे थे, पर जैसे बढ़ते, वो कारवां बढ़ने की बजाय, सिकुड़ता गया। आधे रास्ते तक साथ चलने वाले 5-6 श्रद्धालु ही रह गये थे। वो भी उनसे 5-6 कदम की दूरी पर चल रहे थे। तब रास्ता इतना पक्का नहीं था। कच्चा, उबड़-खाबड़, संकरा, कहीं-कहीं तो एक फुट का रास्ता, जरा पैर फिसला, उधर खाई में।
पीछे वाले फुसफुसाहट कर रहे थे, बहुत हो गया। यहां तक प्रतिमा ले आये, अब वापस चलते हैं। नक्सली कहां से कब आ जायें, कह नहीं सकते। एक धक्का देंगे, किसी की हड्डी का पता तक नहीं चलेगा।

सिर पर पारस है, तो फिर डर काहे का
‘श्री’ मुस्कराते और बिना डर के जोर से कहते – अरे, किस से डरूं, जब पारस बाबा हो साथ हमारे, अब नहीं रुकूंगा, चाहे कोई भी आ जाये, आप भी चलो। इसी तरह साथ चलने वालों का साहस बढ़ाते बढ़ते गये और अब सूरज उगने से पहले की पौफट चुकी थी।

जयकारों के बीच पहुंच गये पारस टोंक पर
लगभग आठ बजे थे और जयकारों के उद्घोष के साथ पहुंच गये पारस टोंक पर, सभी के दिलों में ऐसा आभास हो रहा था, मानो एक बड़ा युद्ध जीत लिया हो। चरणों पर नमन कर आगे सिंहासन पर पारस मूर्ति को विराजमान किया और सभी ने अभिषेक-शांतिधारा की। अब तक जो नहीं हो पाया था, वो ही ही गया था, और आज उस साहसी व्यक्ति को सभी ने भुला दिया, शायद किसी के जाने पर ऐसा करना, हमारी आदत बन गई है।

पहली बार पारस टोंक पर सिद्धचक्र विधान
पारस टोंक पर पहले 12 बजे के बाद कोई नहीं रुक पाता था। लोग टोलियों में चलते, एक गार्ड आगे, दूसरा गार्ड पीछे। अब ऐसे में 8 दिन का सिद्धचक्र विधान करने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। आज की तरह तब तीर्थक्षेत्र कमेटी का कोई कर्मचारी भी ऊपर नहीं रह पाता था।
फिर उन्होंने ही, सबसे पहले 8 लोगों के साथ पारस टोंक पर सन् 1992 में पहली बार सिद्धचक्र विधान कर सभी के लिये दरवाजे खोल दिये और उसके बाद तीर्थक्षेत्र कमेटी ने यहां गार्ड-कर्मचारियों के रहने की व्यवस्था शुरू की।

सम्मेद शिखरजी बचाओ – रथ प्रवर्तन की दिल्ली से शुरूआत
सन् 1997 के सम्मेदशिखरजी विवाद चरम पर था, ऐसे में दिल्ली में ‘शिखरजी बचाओ’ रथ प्रवर्तन की शुरूआत आपके द्वारा की गई और तब श्रुत सागरजी महाराज का पावन सान्निध्य मिला।

लगातार 12 वर्ष तक प्रतिमा पारस टोंक पर ले जाने का सौभाग्य
सन् 1996 से लगातार 12 वर्षों तक आप ही के द्वारा बीसपंथी कोठी से स्वर्णभद्र कूट तक तीर्थंकर प्रतिमा ले जाने का सौभाग्य मिला और फिर अगले 5 वर्ष आपके पुत्र न यह सौभाग्य प्राप्त किया।

कौन है वह अदम्य साहसी – शिखरजी पारस भक्त, जिन्हें आज भुला दिया गया

08 जुलाई 1932 को जन्मे और 18 अगस्त 2018 को हम सबसे दूर हुए श्री श्रीकिशोर जैन, जिनके प्राण ही शिखरजी में बसते थे। आपने 125 से ज्यादा बार पर्वत की वंदना की। उस समय जब यहां की वंदना करना आज की तरह सुरक्षित और सुगम नहीं था।

निहारिका, शाश्वत ट्रस्ट की नींव की पहली र्इंट रखी, अपने निकट मित्र श्री धनपाल सिंह जैन के साथ दिल्ली-एनसीआर में लाखों बच्चों को नैतिक- धार्मिक शिक्षा से संस्कारित किया। सान्ध्य महालक्ष्मी, चैनल महालक्ष्मी के संस्थापक, यानि जैन धर्म – संस्कृति की प्रभावना के लिये हर रूप में समर्पित.. पर आज उनको भुला दिया गया।

गुमनामी के सघन अंधेरे में छोटा-सा दीपक जलाने का प्रयास और अपनी हार्दिक विनयांजलि ‘श्री श्री किशोर जैन’ के प्रति। जो उन्होंने कर दिखाया, उस मील के पत्थरों को उन्होंने लगाया, आज उनसे गुजरते अनेक हैं, पर उनके शिल्पकार को जानने का कोई प्रयास नहीं।