समयक्त्व की वृद्धि का , समयक्त्व की उत्पत्ति का, समयक्त्व के रक्षण का समवर्धन का करण, तीर्थंकर जिनबिम्ब है:”आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी

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धनबाद , सोचने वाले पागल होने लगते है, और जानने वाले भगवान बन जाते है
मित्र!! चिंतन करने वाले, जानने वाले पागल नही होते। जानने की चिंता करने वाले भी पागल हो जाते है।
ज्ञानी कभी पागल नही होता, ज्ञानी बनने की चिंता करने वाला भी पागल हो जाता है।

समयक्त्व की वृद्धि का करण, समयक्त्व की उत्पत्ति का करण, समयक्त्व के रक्षण का समवर्धन का करण, तीर्थंकर जिनबिम्ब है।
यदि गोमटेश बाहुबली का अभिषेक चल रहा है, और ये नन्हे-नन्हे बच्चे, वहाँ जाकर प्रभु के अभिषेक के नीचे बैठ गये। किसी की आँखे अच्छी भी लगेंगी, बुरी भी लगेंगी, कोई नाक भी सिकोड़ेगा। अरे काम-से-काम ये प्रभु के गन्धोदक के छीटे के लिए तड़प रहे है, किसी नारी की खोटी आँखो के छीटे के लिए तो नहीं तड़प रहे है।
अपनी उम्र की दृष्टि से मंदिर नही बनाना, जिन-शासन की वृद्धि के लिए मंदिर बनाना।

महाराज जी ! श्रुत भी खण्डित होता है क्या ? हाँ , श्रुत खण्डित होता है , अखण्डित होता है । यदि मेरे जीवन में अनन्त पर्यायों में एक बार अखण्डित श्रुत हो गया होता तो विश्वास रखना , पञ्चम काल के काले – कलूटे काल में नहीं आने को मिलता

अखण्डित श्रुत नहीं हो सकता , मित्र ! तुम अच्छे से आराधना करने भी जाओ तो लोग कहते हैं कि ये अहंकार कर रहा है

भगवान् सोमदेव सूरि ने एक बात कही कि चतुर्थ काल का श्रमण एक हजार वर्ष तक तपस्या करे उतने ही कर्म की निर्जरा पञ्चम काल का श्रमण एक वर्ष तक तपस्या करे तो कर सकता है इसका रहस्य मेरी समझ में आ गया । चतुर्थ काल में सहज – साधन , स्वयं के परिणामों की अल्पता , विघ्न करने वाले लोगों की अल्पता और साक्षात् केवली श्रुतकेवली के पादमूल की उपलब्धि , धर्म का प्रत्यक्ष फल देवादि का आगमन – ये सब दिखाई देता था , तो उस युग में कोई समता से बैठले , बहुत कठिन नहीं था ।

यहाँ ये सब विषमता ही – विषमता फिर भी अपने आपको सँभाल कर रख ले , इसलिये कर्म की निर्जरा अधिक होती है ।

अखण्ड श्रुत की धारा से तात्पर्य ; एक क्षण को कषाय चतुष्क में से संज्वलन के अलावा अन्य किसी का उदय आ गया , अखण्ड श्रुत की धारा मात्र संज्वलन कषाय के मन्द उदय में ही होगी । ( करणानुयोग ) । संज्वलन कषाय के तीव्र उदय में अखंड श्रुत नहीं बचेगा , खण्डित ही होगा ।
:-#आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी_महाराज