मूलागम परम्परा और उसका काल : हुन्डावसर्पिणी काल में अंग परम्परा के कुल 683 वर्ष

0
1377

तीर्थंकर परमात्मा अपने दिव्यज्ञान द्वारा पदार्थो का साक्षात्कार कर बीजपदों के रूप में उपदेश देते हैं, और गणधर देव उन बीजपदों का तथा उनके अर्थ को अवधारण कर ग्रंथ रूप में गूँथते हैं। यह श्रुतज्ञान की परम्परा अनादि से अवछिन्न रूप से चली आ रही है। इस हुन्डावसर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से श्रुतज्ञान की जो परम्परा प्रारंभ हुई थी, वह पार्श्वनाथ और महावीर के काल में भी गतिशील रही।

श्रुत के मूल आधार सर्वज्ञ वर्द्धमान देव
गौतम स्वामी — 12 वर्ष तक केवली
सुधर्मा स्वामी — 12 वर्ष तक केवली
जम्बूस्वामी — 38 वर्ष तक केवली
62 वर्षों तक रही अनवरत केवली परम्परा

तत्पश्चात पाँच श्रुतकेवली हुये
विष्णु — 14 वर्ष तक श्रुतकेवली
नन्दिमित्र — 16 वर्ष तक श्रुतकेवली
अपराजित — 22 वर्ष तक श्रुतकेवली
गोवर्द्धन — 19 वर्ष तक श्रुतकेवली
भद्रबाहु — 29 वर्ष तक श्रुतकेवली
100 वर्ष तक चली श्रुतकेवली परम्परा

इसके पश्चात दसपूर्वधारी आचार्य हुए
विशाखाचार्य — 10 वर्ष
प्रोष्ठिलाचार्य — 19 वर्ष
क्षत्रियाचार्य — 17 वर्ष
जयसेनाचार्य — 21 वर्ष
नागसेनाचार्य — 18 वर्ष
सिद्धार्थाचार्य — 17 वर्ष
धृतिसेनाचार्य — 18 वर्ष
विजयाचार्य — 13 वर्ष
बुद्धिलिंगाचार्य — 20 वर्ष
देवाचार्य — 14 वर्ष
धर्मसेनाचार्य — 14 वर्ष
183 वर्षों तक ये परम्परा निर्बाध चलती रही

इसके पश्चात एकादशांगधारी आचार्य हुये
नक्षत्राचार्य — 18 वर्ष
जयपालाचार्य — 20 वर्ष
पाण्डवाचार्य — 39 वर्ष
ध्रुवसेनाचार्य — 14 वर्ष
कंसाचार्य — 32 वर्ष
123 वर्षों तक यह परम्परा चलती रही

इसके पश्चात दशांग के ज्ञाता आचार्य हुए
शुभचन्द्राचार्य — 6 वर्ष
यशोभद्राचार्य — 18 वर्ष
भद्रबाहु — 23 वर्ष
लोहाचार्य — 50 वर्ष
97 वर्ष तक यह परम्परा चलती रही

इसके पश्चात एकांग के धारी आचार्य हुए
अर्हद्बलि आचार्य — 28 वर्ष
माघनन्दी आचार्य — 21 वर्ष
धरसेनाचार्य — 19 वर्ष
पुष्पदंत आचार्य — 30 वर्ष
भूतबली आचार्य — 20 वर्ष
118 वर्षों तक यह परम्परा चलती रही

इस प्रकार पट्टावली के अनुसार अंग परम्परा का कुल काल — 62+100+183+123+97+118 = 683 वर्ष है।