सराक जाति का अतीत काफी सुनहरा है। कहा जाता है कि जैन धर्म के श्रावक से बना है सराक शब्द। संस्कृत के श्रावक और प्राकृत के सावग का अपभ्रंश है सराक। जिसका अर्थ है जैन धर्म के अनुयायी। सराकों को आदि जैन माना जाता है।
पूर्व भारत के बिहार (अब झारखंड), पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में निवास करने वाली सराक जाति कब से इस क्षेत्र में अधिवास करती आयी है, इसको लेकर विभिन्न मत हैं। किन्तु इस विषय में सबका मतैक्य है कि इस क्षेत्र के प्राचीन जैन यही हैं। सराक जाति मूलतः भगवान पार्श्वनाथ एवं महावीर भगवान के श्रावकों की वंश परंपरा की संतति हैं। श्रावक से सरावक होते हुए नाम हो गया सराक। आज भी तीनों प्रदेशों में हजारों की संख्या में सराक जाति के लोग निवास कर रहे हैं।
कुछ ऐतिहासिक तथ्य और दस्तावेज –
1864-65 में ले. कर्नल ई. टी. डाल्टन ने मानभूम जिला टूर डायरी में लिखा –
‘‘मानभूम जिले में मैंने दो विभिन्न प्रकार के ध्वंसावशेष देखे। उनमें जो प्राचीन है उसके विषय में कहा जाता है, और इस विषय में कोई संदेह नहीं है कि वे उन प्रथम आर्य उपनिवेशियों द्वारा निर्मित थे, जिन्हें सरावक, सोराक या सराक कहा जाता है। यह भी तथ्य है कि सिहंभूम के पूर्वांचल में भी सराकों ने ही प्रथम उपनिवेश स्थापित किया था। लगता है कि सराकों ने अपनी बस्तियां नदियां केे किनारे किनारे स्थापित की थीं। शायद इसलिए उनके मंदिरों के ध्वांसावषेष दामोदर, कासाई एवं अन्य नदियों के किनारे ही पाए जाते हैं। मैंने इन नदियों की तटभूमि पर मूर्तियां देखी है और निसन्देह कह सकता हूं कि ये सभी तीर्थंकरों की ही मूर्तियां हैं। मैंने जितने भी मंदिरों का विवरण दिया है वे सब संभवतः वीर या महावीर जिस पथ से गुजरे थे उसी पथ के उनके पद्चिन्हों को अनुसरण कर उन लोगों द्वारा निर्मित हैं जिन्हें कि उन्होंने अपना अनुयायी बताया था। ये सभी मंदिर सम्मेतशिखर की परिधि में ही हैं। इस सम्मेत शिखर के विषय में कहा जाता है कि वीर निर्वाण के 230 वर्ष पूर्व जिन पाश्र्वनाथ ने सांसारिक बंधनों को क्षय कर इसी स्थान पर निर्वाण प्राप्त किया था। अतः लगता है कि जंगलों के मध्य, नदियों के किनारे किनारे जिन्होंने यहां बस्तियां स्थापित की थी,ं जिनके मध्य महावीर ने धर्म का प्रचार किया था, वे जैन धर्म के तत्वों से अपरिचित नहीं थे। भूमिज, हो और कोलो के मध्य प्रचलित तथ्यों के मुताबिक भी सराकों ने ही इस अंचल को सर्वप्रथम अपने अधिकार में लिया था।’’
‘बंगाल डिस्ट्रिक्ट गज़ट’, 1901 में लिखा है –
‘‘आदिवासी सराक (कृषक) समुदाय अत्यंत पुराने समुदाय के लोग हैं। बाद में सराक समुदाय एक जाति की तरह पहचान में आने लगा।’’
अंग्रेज विद्वान गेटे ने ‘सेन्सस रिपोर्ट’ में लिखा –
‘‘यह सराक शब्द निसन्देह श्रावक शब्द से उद्˜त हुआ है, जिसका संस्कृत अर्थ है श्रवणकारी। जैनों के मध्य यह शब्द उन गृहस्थों के लिए प्रयुक्त हुआ है जो कि लौकिक व्यवसाय करते हैं एवं यति और साधु से भिन्न हैं।’’
‘गेजेटियर आॅफ मानभूम डिस्ट्रिक्ट’ में अंग्रेज विद्वान कूपलैण्ड ने लिखा –
‘‘सराकगण मूलतः जैन हैं और इसमें कोई संदेह नहीं है।’’
1908 के पुरी गजट के पृष्ठ 85 में लिखा है –
‘‘सराक जाति अति प्राचीन जातियों में से है।’’
‘1866 में लिखित पुस्तक में लिखा है –
’’छोटानागपुर के सिंहभूम में जिस जाति ने तांबा यानी काॅपर के खानों को खोजा और फिर उनमें से सफलापूर्वक तांबा निकाला वो सराक जाति के लोग ही थे। एक समय सिंहभूम सराकों या श्रावकों के अधिकार में था। बड़ी संख्या में वे यहां रहते थे। ये लोग पूर्व में जैन श्रावक थे और इनकी ही संतान सराक जाति के नाम से प्रसि़द्ध है।’’
1908 में ‘दी पीपुल आॅफ इंडिया’ नामक किताब में सर हर्बट रेस्ली ले लिखा –
’’पश्चिम बंगाल, छोटानागपुर और उड़ि़सा के सराकों की प्रथा एक सी है। प्राचीन जैन लोगों के अवशेष हुई प्रतिमाओं और छोड़ दी गईं तांबे की खदाने इन्हीं(सराक) की हैं। सराक निरामिष हैं। किसी भी कारण से जीव हिंसा नहीं करते।’’
पुरातात्विक/ऐतिहासिक साक्ष्य
झारखंड (तत्कालीन बिहार), पश्चिम बंगाल और उड़ीसा राज्यों के सराक अधिवास क्षेत्रों में जैन दर्शन के पुरातात्विक साक्ष्य बिखरे पड़े हैं। इन इलाकों में जैन मंदिरों के अवषेष, कई प्राचीन जैन मंदिर, तीर्थंकरों की प्राचीन मूर्तियां आज भी विद्यमान है। हजारों साल पुराने जैन धर्म से संबंधित भग्नावषेष इन इलाकों में जैन धर्म के सुनहरे अतीत की गवाही देते हैं। पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती अंचलों अर्थात् मानभूम (आधुनिक धनबाद, बोकारो, बर्दमान, बांकुड़ा और पुरुलिया), झारखंड के रांची, खुंटी, चतरा और सिंहभूम इलाके में जितने प्राचीन जैन मंदिरों और मूर्तियों की खोज हुई है, उनके असली निर्माता सराक ही हैं। पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले के पाकबिरा नामक स्थान पर जैन तीर्थंकर शांतिनाथ की मूर्ति मिली है, जो कि संभवतः दसवीं शताब्दी की है। इस स्थान में मिले शिलालेख से यह बात स्पष्ट होती है कि दसवीं शताब्दी में भी पुरुलिया जिले में सराक संप्रदाय का अस्तित्व था। सराक समाज इन अमूल्य धरोहरों के संरक्षणकर्ता हैं।
जनश्रुति/इतिहास-
यह तो स्पष्ट है कि जैन धर्म की उद्भव स्थली में सराकों का प्राचीन काल से निवास रहा है। सराक ही प्राचीन जैन समुदाय है। जिसने समय और काल के विपरीत प्रवाह में भी जैन परंपरा और मूल्यों को अक्षुण रखा है। सवाल है कि सराक समुदाय के लोग इस क्षेत्र में कहां से आए? इस सवाल के जवाब में कई जनश्रुतियां हमारे समक्ष आयी हैं। जनश्रुति यह है कि सराक समुदाय के लोग पहले शिखरभूम और पंचकोट अंचलों में निवास करते थे। कहा जाता है कि पंचकोट के राजाओं का अनुग्रह प्राप्त कर सराक समाज के लोग चार भागों में विभक्त हो गए।
1. पंचकोटिया यानी पंचेत अंचल के अधिवासी
2. नदीपरिया यानी मानभूम जिले के दामोदर नदी के
आसपास के निवासी
3. बीरभूमिया यानी जो बिरभूम अंचल में रहते थे
4. तामड़िया यानी रांची अंचल के तमाड़ क्षेत्र के निवासी
इन क्षेत्रों में आज भी सराक समुदाय के लोग रहते हैं। आगे चलकर विभिन्न कारणों से इन्हें इन अंचलों से दक्षिण-पश्चिम की तरफ (पुरुलिया के पश्चिमी क्षेत्र, रांची, सिहंभूम, संथाल परगना, मानभूम) चले जाने को बाध्य होना पड़ा। एक तथ्य यह है कि सराकों का एक समूह शिखरभूम और पंचकोट अंचल होते हुए सिहंभूम पहुंचा। ऐसा माना जाता है कि सिंहभूम के सराक आर्थिक रूप से काफी संपन्न थे। उन्होंने वहां ताम्र खदानों को खोजा और व्यापार किया। कालांतर में राजनैतिक और सामाजिक कारणों से सराकों के अधिकारों को छीन लिया गया। आर्थिक विपन्नता के कारण वे खेती करने लगे। उन पर काफी शोषण हुआ।
अधिवास/निवास स्थान–
सराक जाति के लोग झारखंड (तत्कालीन बिहार), पश्चिम बंगाल और उड़ीसा राज्य में निवास करते हैं। तीर्थकरों की तप, कर्म और निर्वाण भूमि क्षेत्र में ये प्राचीन काल से रहते आए हैं और अब भी रहते हैं। सराक जाति के लोग वर्तमान काल में झारखंड के नौ (रांची, खंुटी, धनबाद, बोकारो, जामताड़ा, दुमका, गिरिडीह, और सिंहभूम) जिलों में, पश्चिम बंगाल के पांच (पुरुलिया, बर्दमान, बिरभूम, बांकुड़ा और मेदनीपुर) जिलों और उड़ीसा के आठ (कटक, नयागढ़, गंजम, पुरी, ढेंकानल, जाजपुर, खुर्द और राउरकेला) जिलों में निवास करते हैं। सराकों की अनुमानित जनसंख्या लगभग पांच लाख होगी। एक विशेष बात यह है कि इन प्रदेशों के मांसाहारी जातियों के बीच रहते हुए भी सराक विशुद्ध निरामिष हैं। जैन परंपरा की गौरव गरिमा को मजबूती से निभाते हुए सराकों ने भगवान पाश्र्वनाथ और भगवान महावीर उपदिष्ट अहिंसा की ज्योति को जला कर रखा है।
भाषा/बोलियां-
पश्चिम बंगाल में रहने वाले सराकों की भाषा देसी बांग्ला है। झारखंड के दुमका, जामताड़ा, धनबाद और बोकारो में सराक देसी बांग्ला और हिन्दी बोलते हैं। वहीं झारखंड के रांची और खुटी जिले के सराक पंचपरगनिया और हिन्दी बोलते हैं। जबकि झारखंड के सिहंभूम में सराकों की भाषा हो मिश्रित बांग्ला और हिन्दी है। उड़ीसा में इनकी भाषा उड़िया है।
पेशा/रोजी–
मूलतः कृषि ही सराकों की जीविका का मुख्य साधन है। सराक छोटे किसान हैं। ये अपने खेतों में या दूसरे के खेतों में कार्य करते हैं। हाल के दिनों में शिक्षा के प्रसार ने सराकों को भी प्रभावित किया है। कुछेक सराक सरकारी नौकरी में भी हैं। कुछ स्वरोजगार को अपना कर कुटीर व्यवसाय करने लगे हैं।
गोत्र-
सराक जाति के जैन धर्म से पुरातन जुड़ाव का सबसे बड़ा प्रमाण है इनके गौत्र नाम। इनके गोत्र नाम तीर्थंकरों के नाम पर हैं। सबसे अधिक प्रथम तीर्थकर आदिदेव गोत्र से आते हैं। इसी तरह अन्य गौत्र में वत्सराज, धर्मदेव, गौतम देव, शांति देव, परासर, अनंत, कश्यप, शांडिल और नाग शामिल हैं। ये सभी नाम जैन धर्म के तीर्थंकरों और भगवंतों के नाम हैं।
आचरण/रीति व्यवहार/धर्म रक्षा-
विभिन्न कारणों से जैन धर्म की अतिशय भूमि बिहार, झारखंड, बंगाल और उड़ीसा में विभिन्न कारणों से जैन धर्म का अस्तित्व मिटने लगा। जैन धर्म के अनुयायियों पर अपने धर्म और संस्कृति को बचाने की संकट आ पड़ी। लेकिन तमाम संकटों के बावजूद सराक समुदाय ने अपनी जैन परंपरा को नहीं छोड़ा। उनके मंदिर, उपाश्रय और धर्म स्थानों को विभिन्न मतालंबियों के कट्टर शासकों ने नष्ट कर दिए। जिसका प्रभाव आज भी इन इलाकों में देखने को मिलता है। उस वक्त सराकों के पूर्वजों ने आक्रमणकारियों के हाथों से बचाने के लिए अपने तीर्थकरों और जैन देवों की मूर्तियों कोे जमीन के अंदर छुपा दिया थाए जो बाद में उत्खनन से प्राप्त हुए। जैन धर्म विरोधी माहौल में सराक समुदाय अपने धर्म कर्म से वंचित हो गया। जैन धर्म से उनका नाता टूट सा गया। लेकिन इसके इस समुदाय ने अपने आचारण और व्यवहार में जैन मान्यताओं और परंपराओं को जीवित रखा। इसके कुछ उदाहरण यूं हैं –
0 पूर्ण निरामिष होना।
0 पानी छानकर पीना।
0 लहसुन, प्याज त्याज्य होना।
0 खाद्य सामग्री में काटो शब्द का प्रयोग वर्जित होना। काटना, मारना आदि हिंसक शब्दों का प्रयोग वर्जित है।
0 गोत्रदेव जैन तीर्थंकरों के नाम पर होना।
0 दीपावली में महावीर निर्वाण कल्याणक मनाना
0 जैन तीर्थंकरों की उपासना करना।
0 प्राचीन जैन भूमि का मूल अधिवासी होना।
जैन धर्म पर संकट/धर्मपालन में ग्रहण-
जैन धर्म की अतिशय भूमि बिहार, झारखंड, बंगाल और उड़ीसा में विभिन्न कारणों से जैन धर्म का प्रभाव घटने लगा था। जैन संरक्षक राजाओं के पराभाव और जैनाचार्यों द्वारा विवशता में इस पावन भूमि के त्याग के कारण इस क्षेत्र में जैन शासन का सूर्य अस्त होता गया। जैनाचार्यों और श्रमणों का इस क्षेत्र में विहार बंद हो गया और उपदेश यात्राएं स्थगित हो गयीं। धर्म पालन कठिन हो गया। इस विपदा की घड़ी में सराकों को काफी कठनाईयां झेलनी पड़ी।
धार्मिक पुनर्जागरण/पुनरूत्थान-
50-60 के दशक में श्वेतांबर जैनाचार्य परमपूज्य श्री धर्मसुरिजी महाराज साहब के परम शिष्य श्री मंगल विजयजी महाराज ने बंगाल और बिहार की यात्रा की और सराकों को पहचान कर उनके उत्थान के लिए कार्य प्रारंभ किए। इन्हीं के सत्प्रयास से जैन समाज को सराक समुदाय की जानकारी मिली। परमपूज्य श्री मंगल विजयजी महाराज ने सराक उत्थान के कार्य के लिए एक रत्न ढूंढा – और फिर उन्हें अपना शिष्य बनाया जो कि बाद में सराक उद्धारक श्री प्रभाकर विजय जी महाराज के नाम से प्रसि़द्ध हुए। सराक उद्धारक श्री प्रभाकर विजय जी महाराज ने सराकोत्थान के कई गंभीर प्रयास किए। इनका योगदान हमेशा के लिए प्रेरणा का श्रोत बना रहेगा। इन दोनों आर्चाय भगवंतों के निर्वाण के बाद सराकों के विकास का कार्य फिर रूक गया। सराकों में जनजागरण, जैन शासन में पुनर्प्रतिष्ठा का महत्वपूर्ण कार्य ठप पड़ गया। कालांतर में सराक उत्थान के नाम पर श्वेतांबर और दिगंबर दोनों समुदाय द्वारा कुछेक प्रयास किए गए। लेकिन दूरगामी सोच, कार्य योजना और ईमानदार प्रयास के अभाव में इन प्रयासों ने भी दम तोड़ दिया।
सराकोद्धारक आचार्य श्री ज्ञान सागर जी ने अपना पूरा जीवन सराको के उद्धार करने में समर्पित कर दिया
सराकों की वर्तमान दशा-
आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से सराक समाज अभी भी पिछड़ा है। पश्चिम बंगाल में सरकार ने सराकों को अन्य पिछड़ा वर्ग(ओबीसी) के रूप में मान्यता दी है। इसके कारण अति अल्प संख्या में शिक्षितों को नौकरी प्राप्त हो सकी है। इसके कारण समाज को अन्य लाभ भी प्राप्त होंगे। लेकिन व्यापक समाज इस लाभ से वंचित है। झारखंड में अभी तक सराक समाज को कोई सरकारी लाभ नहीं मिल पाया है। सराक समुदाय वास्तव में एक अपनी अस्तित्व का संकट झेलने वाला समाज बन गया है। सराक समुदाय न सिर्फ जैन धर्म की मुख्यधारा से वंचित है, बल्कि सरकारी तौर पर भी उपेक्षित है। झारखंड में सराक जाति या समुदाय को लेकर अब तक न ही व्यापक सर्वेक्षण/शोध हुआ है और ना ही कोई पहल। सरकार की सूचि में सराक जाति सूचिबद्ध नहीं है। जैन समाज ने भी इस ओर कोई गंभीर पहल नहीं की है। जबकि झारखंड और पश्चिम बंगाल में अन्य जैन समाज से अधिक जनसंख्या सराक समुदाय के लोगों की है। अपने अधिकारों से वंचित सराक समाज के सामने वर्तमान में सबसे बड़ा संकट अपनी पहचान का संकट है। मूलनिवासी और प्राचीन जैन होते हुए भी सराकों को सरकारी मान्यता नहीं मिली है। केन्द्र सरकार के बाद झारखंड सरकार ने भी जैन समुदाय को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा दिया है। लेकिन जानकारी और उचित मार्गदर्शन के अभाव में क्षेत्र के मूलवासी जैन समाज होते हुए भी सराक समाज के लोग इसका लाभ लेने से वंचित हैं।
सराकों के सम्यक उत्थान के लिए गंभीर प्रयास की कमी के कारण यह समुदाय जैन समाज का उपेक्षित अंग बन कर रह गया है।
जैन उपासक होते हुए भी अधिकांश सराक अभी भी धर्मपालन से वंचित हैं। सराक क्षेत्रों में उपाश्रय, सत्संग, विहार, जैन साहित्य के अभाव और जैन समाज की उपेक्षा के कारण सराक अपनी प्राचीन परंपरा का पालन नहीं कर पा रहे हैं।
संभावनाएं/सम्यक हस्तक्षेप-
संभावनाएं तो अपार हैं। मगर उन संभावनाओं को ढूंढ़ने के लिए कुशलतापूर्वक यज्ञ सरिता में डूबना होगा। संभावनाओं के मूल तत्वों को तलाश कर उन्हें तराशना होगा। सराक समुदाय की वर्तमान दशा को बेहतर करने और उनके उत्थान के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है ईमानदार और ठोस पहल की। एक बेहतर कार्ययोजना के साथ समुदाय को साथ लेकर सही दिशा में अग्रसर होने की आवश्यकता है। दूरगामी सोच के तहत काम करना होगा।
सराक समाज को जैन समाज की मुख्यधारा से जोड़ने और उनके समुचित विकास के लिए निम्न प्रारंभिक प्रयास किए जा सकते हैं :-
-सराक समाज पर व्यापक
-सर्वेक्षण और शोध कार्य का प्रबंध।
-सराक समाज के इतिहास का दस्तावेजीकरण।
-पुस्तकों/पत्रिकाओं का प्रकाशन।
-सराक समाज पर केंद्रित पत्रिका का प्रकाशन।
-सराक समाज पर केंद्रित वेबसाईट प्रारंभ करना।
-बंगाल की तरह झारखण्ड में सराक समाज को पिछड़ा वर्ग में सूचिबद्ध करने के लिए पहल करना।
-बंगाल, बिहार, झारखंड और ओडिसा में स्थित सभी जैन तीर्थस्थानों के विभिन्न समितियों में सराक प्रतिनिधि का स्थान सुनिश्चित करना।
-मोबाइल जैन लाईब्रेरी(चलंत पुस्तकालय) की व्यवस्था द्वारा सराक ग्रामों में जैन साहित्य सुलभ कराना।
-सराक समाज की वास्तविक स्थिति के विषय में सरकार को अवगत कराना।
-सराक समुदाय को अल्पसंख्यक जैन जाति के रूप में सरकारी तौर पर सूचिबद्ध कराना।
-सराक गांवों में ‘सराक सम्मेलन’, फिर केंद्रीय स्तर पर ‘सराक महासम्मेलन’ का आयोजन। ताकि सराकोत्थान हेतु -कार्ययोजना का खाका तैयार कर उसे मूर्त देने का प्रयास प्रारंभ किया जा सके।
-सराक जैन समाज का केंद्रीय संगठन तैयार करना।
-जैन संघों में सराक सेल/प्रभाग का गठन।
-सराक विधार्थियों के लिए छात्रवृत्ति
-सराक गांव/पंचायत में पाठशाला की स्थापना/प्रबंध करना।
-जिला/प्रखंड स्तर पर स्वरोजगार प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना/प्रबंध करना।
-एक केंद्रीय सराक विद्यापीठ और छात्रावास की स्थापना/प्रबंध करना।
-सराक गांवों में जैन धर्म उन्मुखी कार्यक्रम का आयोजन।
-सराक क्षेत्रों में जैन आचार्य भगवंतों के विहार/धर्म यात्रा की व्यवस्था।
-सराक गांवों में उपाश्रय/मंदिर की स्थापना।
-सराक गांवों के लिए चल चिकित्सालय की व्यवस्था करना।
-सराकों की आर्थिक उन्नति और स्वावलंबन के लिए कार्ययोजना।
-शिक्षित सराक बेरोजगारों को स्वरोजगार हेतु परामर्श देना।
जाहिर है सराक समाज उपेक्षित है। जैन समाज के व्यापक हित के लिए जरूरी है
कि हम सराक समाज के उत्थान के लिए कार्य करें। इसके लिए सम्यक प्रयास करने होंगे। सराक जैन समुदाय का उत्थान कर ही हम सकल जैन समाज का कल्याण कर सकते हैं।
अन्त में सराक उद्धारक श्वेतांबर जैनाचार्य श्री प्रभाकर विजय जी महाराज साहब का निम्न कथन का उल्लेख करना महत्वपूर्ण होगा –
‘‘जैन समाज को चाहिए कि वो सराक जैसी प्राचीन जैन जाति का उत्थान कर उन्हें मुख्यधारा में शामिल कर लें। जैन संस्कृति से संबंधित क्षेत्र में और भी संशोधन, संरक्षण करने और उज्जवल बनाने के लिए जैन संघ एवं त्यागी वर्ग एकता पूर्वक मिलकर कार्य करें एवं जैन वृद्धि के लिए संगठन के रास्ते से प्रयत्नशील हो।’’
#संदर्भ_सहयोग : सरकारी गजट, कई जैनाचार्य द्वारा लिखित पुस्तक, पत्र पत्रिकाएं
-रीतेश_सराक
(संपादक: शिखरजी टाइम्स, गिरिडीह)