षट्खण्डागम ग्रन्थ तृतीय होते हुए भी प्रथम कैसे? – आचार्य अतिवीर मुनि

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प्रशममूर्ति आचार्य श्री 108 शांतिसागर जी महाराज (छाणी) परंपरा के प्रमुख संत परम पूज्य आचार्य श्री 108 अतिवीर जी मुनिराज के परम पावन सान्निध्य में जैन दर्शन के महत्वपूर्ण पर्व श्रुतपंचमी के पुनीत प्रसंग पर ऑनलाइन ज्ञानवर्धक विद्वत संगोष्ठी का आयोजन रविवार, दिनांक 13 जून 2021 को ऐतिहासिक रूप से सानंद संपन्न हुआ| जैन दर्शन के मूर्धन्य विद्वानों ने विभिन्न विषयों पर तर्कसंगत व आगम सम्मत वक्तव्य प्रस्तुत किये| संगोष्ठी का आयोजन जैन यूथ काउन्सिल (दिल्ली प्रदेश) के तत्वावधान में तथा सञ्चालन श्री शरद जैन (सांध्य महालक्ष्मी) द्वारा किया गया| पं. संदीप जैन शास्त्री (दिल्ली) ने मंगलाचरण के माध्यम से जैन वांग्मय में मुनियों के उपकार का वर्णन करते हुए संगोष्ठी का शुभारम्भ किया| आचार्य श्री के प्रवास स्थल अशोक विहार फेज-2 जैन समाज द्वारा जिनवाणी विराजमान व दीप प्रज्जवलन किया गया|

श्रुत पंचमी (प्राकृत भाषा दिवस) व प्राकृत भाषा की उपयोगिता पर वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए डॉ. अनेकांत जैन (दिल्ली) ने कहा कि आगम को मूल रूप में सुरक्षित करने के लिए प्राकृत भाषा का ज्ञान और उन गाथाओं को कंठस्थ करने की परंपरा उसी प्रकार बहुत आवश्यक है जिस प्रकार वैदिक वेद पाठ कंठस्थ करके उसे सुरक्षित करते हैं। इसी उद्देश्य से श्रुत पंचमी के दिन को प्राकृत भाषा दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। श्रुत परंपरा तभी सुरक्षित रहेंगे जब उसकी भाषा सुरक्षित रहेगी।

श्री षट्खण्डागम ग्रंथराज का महत्व बताते हुए प्रो. वृषभ प्रसाद जैन (लखनऊ) ने कहा कि वर्तमान में श्री षट्खंडागम ग्रंथराज दिगम्बर परम्परा में प्राप्त श्रुत का प्रथम प्रमाणिक व लिखित मूलाधार है, जिसे प्रभु की वाणी का प्रथम उपलब्ध लेख-रूप भी कह सकते हैं। यही सुदेव की पहचान कराता है और सुगुरु की भी, क्योंकि सुशास्त्र या सुश्रुत की प्रमाणिक परंपरा ही तो उभय दीपक है और कसौटी भी| इसीलिए षट्खंडागम की परंपरा पर ही देव और गुरु की प्रमाणिकता की परंपरा टिकी है और यही हमारी वैचारिक परंपरा का प्रथम लेखीय प्रतीक है, जो हमारे अस्तित्व की प्रथम लेखीय पहचान भी है| इसलिए इसका संरक्षण, पोषण और पल्लवन हम-सब का प्रथम कर्तव्य भी होना चाहिए।

श्रुतपंचमी पर्व मनाने की उत्तम विधि पर प्रकाश डालते हुए डॉ. वीर सागर जैन (दिल्ली) ने कहा कि केवल जिनवाणी को सजाना, पालकी यात्रा निकालना, अष्ट-द्रव्य से पूजन करना और फिर पुनः अलमारी में विराजमान कर देना मात्र श्रुतपंचमी पर्व नहीं है| इस महापर्व की सार्थकता तभी होगी यदि आज के दिन हम स्व-पर कल्याण हेतु कुछ ठोस व आवश्यक कार्य करने का उद्यम करेंगे| सर्वप्रथम तो हम सभी को प्रतिदिन किसी मूल आगम ग्रन्थ का विशुद्ध आत्महित की भावना से स्वाध्याय करना चाहिए| हम उत्सव तो मना लेते हैं, ग्रन्थ की पूजा आदि भी कर लेते हैं परन्तु कभी उन्हें खोलकर देखते तक नहीं| आज के दिन हमें जिनवाणी को व्यापक स्तर पर विश्व में पहुँचाने का उद्यम भी अवश्य करना चाहिए | जैन साहित्य को जैनेतर विद्वानों, शोधार्थियों, वैज्ञानिकों, राजनेताओं आदि तक पहुँचाने की नितांत आवश्यकता है|

श्रुत रक्षा के उपाय पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए डॉ. श्रेयांस कुमार जैन (बड़ौत) ने कहा कि आचारंग आदि बारह अंग उत्पाद पूर्व आदि चौदह पूर्व और सामायिकादि चौदह प्रकीर्णक का शब्दात्मक रूप से जानना द्रव्यश्रुत है| द्रव्यश्रुत के सुनने से उत्पन्न जो ज्ञान है सो भावश्रुत है| श्रुतज्ञान केवलज्ञान के सदृश होता है| इन्द्रिय व प्रकाश आदि के द्वारा जो ज्ञान होता है, व परोक्ष है तथा इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना आत्मा के द्वारा जो पदार्थ ज्ञान है, वह प्रत्यक्ष है| श्रुतज्ञान ही द्रव्यश्रुत व भावश्रुत का बोधक है| श्रुत का रक्षण श्रुताभ्यास से ही संभव है| शास्त्रों का स्वाध्याय करना-करवाना तथा चिंतन-मनन करना ही श्रुतरक्षा का उपाय है| द्रव्यश्रुत और भव्यश्रुत केवलज्ञान का निमित्त है अतः उनकी संरक्षण आत्मा का महान उपकार है|

पं. ऋषभ जैन शास्त्री (वसुंधरा) ने स्वाध्याय का महत्व बताते हुए कहा कि जिनागम में स्वाध्याय को परम तप कहा है क्योंकि इसके बिना अन्य तपों की जानकारी भी सम्भव नही है| स्वाध्याय द्वारा कषाय मन्द होती हैं, सातिशय पुण्य का बंध होता है, ज्ञानधन का संचय होता है, सभी लौकिक कार्य सहज सिद्ध होते हैं, स्वर्ग सुख और अंत में परम्परा से मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है। सबसे बड़ी बात है कि स्वाध्याय से मुझे ही मेरी पहचान होती है| ठीक ही कहा है स्वाध्याय बिना नर तिर्यंच समान है| प्रधानता से जिसकी सुलभता मात्र मनुष्य गति में ही है ऐसे स्वाध्याय से हम भी अपने दुखों का भव का अभाव करें|

संगोष्ठी के मध्यस्थ पं. आशीष जैन शास्त्री (मथुरा) द्वारा आध्यात्मिक भजन की प्रस्तुति दी गयी| अंत में आचार्य श्री 108 अतिवीर जी मुनिराज ने अपनी मंगलमयी वाणी से श्रोताओं को लाभान्वित करते हुए कहा कि श्रुतपंचमी श्री षट्खण्डागम ग्रंथराज की पूर्णता का उत्सव है| आचार्य धरसेन जी ने अपने शिष्यों श्री पुष्पदंत-भूतबलि जी को जिनागम का ज्ञान दिया जिसे उन्होंने लिपिबद्ध किया| आज के दिन श्री जिनवाणी माँ की आराधना का पर्व है| आचार्य श्री ने आगे कहा कि हमें शास्त्र मिल गया, हमने पूजा-अर्चना भी कर ली परन्तु इससे हमारे जीवन में क्या परिवर्तन आया, यह सोचना होगा| स्वाध्याय के माध्यम से जब हम स्वयं का दर्शन कर लेंगे तो फिर प्रतिदिन हमारे जीवन में वास्तविक श्रुतपंचमी मनेगी| हमारे अंतःकरण की जाग्रति जिस दिन हो जाएगी उस दिन वह हमारी स्वयं की श्रुतपंचमी होगी|

आचार्य श्री ने आगे कहा कि श्री षट्खण्डागम ग्रंथराज की पूर्णता पर आज हम श्रुतपंचमी महापर्व मना रहे हैं| परन्तु इससे पहले दो शास्त्र – कषायपाहुड व योनिपाहुड भी लिपिबद्ध हुए थे, तो ये उत्सव मात्र षट्खण्डागम के लिए ही क्यों? ऐसा क्या कारण है कि पहले के दो शास्त्र को छोड़कर हमने तीसरे शास्त्र को ही प्रथम लिपिबद्ध कह दिया, यह विचारणीय है| आचार्य श्री ने कहा कि वर्तमान में जिनालयों व जिनबिम्बों की तो बहुलता है परन्तु श्रुत मंदिर का अभाव होने लगा है| प्राचीन समय में बड़े-बड़े आश्रम, बड़े-बड़े विद्यालय स्वाध्यायप्रेमियों के लिए स्थापित किये गए थे जहाँ जैन दर्शन के गूढ़ रहस्यों को समझने का प्रयास निरंतर चलता रहता था| परन्तु वर्तमान में ऐसे स्थान कही देखने को नहीं मिलते| जैन समाज में स्वाध्याय के प्रति उदासीनता का भाव आने लगा है| इसके लिए हम सभी जिम्मेदार है चाहे साधु हो, या विद्वान हो या श्रावक| हर तरफ बाहरी क्रियाओं की चर्चा तो होती है परन्तु अंतरंग यात्रा का विषय गौण होने लगा है|