15जून 2021: #श्रुतपंचमी प्राकृत दिवस : एक नई शुरूआत-#षट्खंडागम ग्रन्थ को लिपिबद्ध न करते तो अन्य ग्यारह अंगों की भांति यह भी लुप्त हो जाता

0
1626

सान्ध्य महालक्ष्मी

णमो धरसेणाणं य भूयबलीपुप्फदंताणं सयय।
सुयपंयमीदियसे य लिहीअ सुयछक्खंडागमो।।

श्रुत पंचमी के दिन भगवान महावीर की मूल वाणी द्वादशांग के बारहवें अंग दृष्टिवाद के अंश रूप श्रुत अर्थात् षटखंडागम को लिखने वाले आचार्य पुष्पदंत और भूतबली तथा उन्हें श्रुत का ज्ञान देने वाले उनके गुरु आचार्य धरसेन को मेरा सतत नमस्कार है।

वास्तव में यह एक आश्चर्य जनक घटना थी, अन्यथा आज हमारे पास मूल वाणी के नाम पर कुछ नहीं होता। आचार्य धरसेन यदि श्रुत रक्षा के लिए आचार्य पुष्पदंत और भूतबली को अपने पास न बुलाते, उन्हें भगवान की मूल वाणी न सौंपते और वे षट्खंडागम ग्रन्थ को लिपिबद्ध न करते तो अन्य ग्यारह अंगों की भांति यह भी लुप्त हो जाता। प्राकृत भाषा में रचित षट्खंडागम की रचना करके उन्होंने न सिर्फ श्रुत ज्ञान की रक्षा की बल्कि जैन आगमों की भाषा ‘प्राकृत’ की भी रक्षा की। यही कारण है कि श्रुत पंचमी के दिन को प्राकृत भाषा दिवस के रूप में भी मनाया जाता है।
सभी भाषाओं की जननी जनभाषा प्राकृत

महाकवि वाक्पतिराज (आठवीं शताब्दी) ने प्राकृत भाषा को जनभाषा माना है और इससे ही समस्त भाषाओं का विकास स्वीकार किया है। गउडवहो (गाथा 93) में वाक्पतिराज ने कहा भी है –

सयलाओ इमं वाआ विसन्ति एक्तो य णेंति वायाओ।
एन्ति समुद्दं चिय णेंति सायराओ च्चिय जलाईं।।

अर्थात् सभी भाषाएं इसी प्राकृत से निकलती हैं और इसी को प्राप्त होती हैं। जैसे सभी नदियों का जल समुद्र में ही प्रवेश करता है और वहां से (वाष्प रूप में) बाहर निकलकर नदियों के रूप में परिणत हो जाता है।
आगमों की भाषा प्राकृत

प्राकृत भाषा भारत की प्राचीनतम भाषा है, जिसने भारत की अधिकांश क्षेत्रीय भाषाओं को समृद्धि प्रदान की है। भगवान महावीर की दिव्यध्वनि में जो ज्ञान प्रकट हुआ वह मूल रूप से प्राकृत भाषा में संकलित है, जिन्हें प्राकृत जैन आगम कहते हैं। सम्पूर्ण द्वादशांग इसी भाषा में है। सिर्फ जैन आगम ही नहीं, बल्कि प्राकृत भाषा में लौकिक साहित्य भी प्रचुर मात्रा में रचा गया क्योंकि यह प्राचीन भारत की जन भाषा थी। ‘प्राकृत’ का समृद्ध साहित्य है, जिसके अध्ययन के बिना भारतीय समाज एवं संस्कृति का अध्ययन अपूर्ण रहता है। कथा और काव्य साहित्य भरा पड़ा है। आयुर्वेद, गणित, भूगोल, जीवविज्ञान, भौतिक विज्ञान, रसायन शास्त्र, आहार विज्ञान, संगीत, ज्योतिष, तंत्र-मंत्र आदि अनेक विषयों पर प्राकृत साहित्य में प्रचुर सामग्री है।
प्राकृत भाषा का संरक्षण किसकी जिम्मेदारी?

आश्चर्य होता है कि भारत वर्ष की प्राचीन मूल मातृभाषा होने के बाद भी आज इस भाषा का परिचय भी भारत के लोगों को नहीं है। प्राकृत परिवर्तन प्रिय भाषा थी, अत: वह ही काल प्रवाह में बहती हुई अपभ्रंश के रूप में हमारे सामने आई तथा कालांतर में वही परिवर्तित रूप में राष्ट्र भाषा हिंदी के रूप में, हिंदी के विविध रूपों में हमें प्राप्त होती है। प्राकृत भाषा ने लगभग सभी क्षेत्रीय भाषाओं को समृद्ध किया है।

आज भाषा के क्षेत्र में बहुत काम हो रहा है। संस्कृत, हिंदी आदि भारतीय भाषाओं के रक्षण की भी बात बहुत होती है और कार्य भी बहुत हो रहे हैं, किन्तु प्राकृत भाषा की संपदा को बचाने और समृद्ध करने की दिशा में अभी वैसे कार्य न तो सामाजिक स्तर पर हो रहे हैं और न ही राजकीय स्तर पर।
जब किसी प्राचीन भाषा और संस्कृति की उपेक्षा सरकार और समाज दोनों करने लग जाएं, तो उसके उद्धार के लिए किसी न किसी मसीहा को जन्म लेना पड़ता है। भगवान महावीर के उपदेशों की भाषा जिसमें सम्पूर्ण मूल जिनागम रचा गया ऐसी भारत की सर्व प्राचीन और सर्व भाषाओं की जननी प्राकृत भाषा जब अपने ही भारत में ही इतनी उपेक्षित होने लगी कि लोग यह भी भूल गए कि नमस्कार मंत्र किस भाषा में रचित है, तब उस जननी जनभाषा प्राकृत के उद्धार के लिए 21वीं सदी में सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्य विद्यानंद जी ने मसीहा का कार्य किया और आज ऐसा दिन आ गया है कि कुछ लोग प्राकृत भाषा का महत्व समझने लगे हैं, उसे पढ़ना-लिखना सीख रहे हैं, कई मुनि और विद्वान इस भाषा में नयी रचनाएं भी कर रहे हैं।
प्राकृत दिवस का इतिहास

श्रुत पंचमी के दिन को प्राकृत भाषा दिवस के रूप में भी मनाने का संकल्प 1994 में प्रारंभ हुआ। नई दिल्ली में कुन्दकुन्द भारती परिसर में आचार्य विद्यानंद मुनिराज के पावन सान्निध्य में दिनांक 28-30 अक्टुबर 1994 को राष्ट्रीय शौरसेनी प्राकृत संगोष्ठी में विद्वान डॉ. फूलचंद जैन प्रेमी, वाराणसी ने प्रस्ताव रखा कि हिंदी दिवस ,संस्कृत दिवस की तरह प्राकृत भाषा और उसके विकास के लिए ‘प्राकृत-दिवस’ के रूप में श्रुत पंचमी ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी का दिन प्रति वर्ष मनाया जाए। डॉ. रमेशचंद जैन, बिजनौर ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया और आचार्य विद्यानंद मुनिराज के आशीर्वाद से 1995 से यह दिन प्राकृत दिवस के रूप में भी आज तक मनाया जा रहा है।
प्राकृत भाषा को पहचानने के पांच स्वर्णिम नियम

वर्तमान में यह एक सुखद समाचार है कि प्राकृत आगमों का स्वाध्याय समाज में बढ़ा है, किन्तु प्राकृत भाषा के ज्ञान तो दूर उसके सामान्य परिचय के अभाव में कई चीजें समझ नहीं पाते हैं। मैंने अक्सर बड़े-बड़े पोस्टरों, बैनरों यहाँ तक कि दीवालों पर खुदा हुआ भी गाथाओं का अशुद्ध पाठ देखा है, जैसे चत्तारि पाठ में ‘मंगलं’ के स्थान पर ‘मंगलम्’ लिखा रहता है। अत: हमें इस भाषा का सामान्य ज्ञान अवश्य होना चाहिए ताकि अशुद्धि न हो। इसके लिए मैं मात्र प्रमुख पांच नियम यहाँ आपको समझने के लिए दे रहा हूँ ताकि आप इस भाषा को पहचान तो सकें –
1. प्राकृत भाषा में हलंत ( ्‌) का प्रयोग कभी नहीं होता। जैसे प्राकृत में मंगलम् कभी भी और कहीं भी नहीं लिखा जाता है। हमेशा ‘मंगलं’ लिखा जाता है।

2. कभी भी विसर्ग (:) का प्रयोग नहीं होता है, जैसे ‘राम:’ कभी नहीं लिखा जाता हमेशा ‘रामो’ लिखा जाता है।

3. हमेशा एकवचन और बहुवचन का प्रयोग होता है, कभी द्विवचन का प्रयोग नहीं होता।

4. स्वरों में ‘ऐ, औ, अ:, लृ और ऋ, ॠ’ का प्रयोग कभी नहीं होता।

5. व्यंजन में ‘झ्, ङ्, क्ष, त्र, ष’ का प्रयोग नहीं होता। मागधी प्राकृत को छोड़कर कहीं भी ‘श*’ का प्रयोग भी नहीं होता।
प्राकृत दिवस कैसे मनाएं ?

॰ श्रुत पंचमी के पावन दिन प्राकृत दिवस मनाने का शुभ संकल्प हम सभी को अवश्य करना चाहिए।

॰ इस दिन प्राकृत की पांडुलिपियों के संपादन, अनुवाद एवं प्रकाशन की योजनायें बननी चाहिए, ताकि शेष ग्रन्थ भी स्वाध्याय हेतु सामने आ सकें।

॰ प्राकृत भाषा सिखाने की कार्यशाला होनी चाहिए ताकि लोग आगमों को स्वयं पढ़ सकें। प्राकृत कवि सम्मेलन होने चाहिये।

॰ मंदिरों, स्वाध्याय भवनों, संस्थाओं में दीवारों पर प्राकृत गाथाएं, सुभाषित स्वर्ण अक्षरों में लिखवाने चाहिए ताकि आम जन उससे लाभान्वित हो सकें, नयी पीढ़ी में संस्कार पड़ सकें।

॰ मूल आगम गाथा पाठ का आयोजन करना चाहिए।

॰ गाथाएं कंठस्थ करने की प्रतियोगिताएं रखनी चाहिए।

॰ जय जिनेन्द्र की तरह प्राकृत में जयदु जिणिन्दो / णमो जिणाणं अभिवादन करना चाहिए।

॰ कार्यक्रमों के प्रारंभ में प्राकृत मंगलाचरण अवश्य करना चाहिए।

इसके अलावा अन्य अनेक व्याख्यान, संगोष्ठी आदि के द्वारा इस पावन दिन को यदि उत्साहपूर्वक हम करते हैं तो उससे जन जागृति होती है। हमारी वर्तमान और आने वाली पीढ़ी, जिन्हें अब हिंदी समझना भी दुश्वार हो गया है उनके बीच यदि हम वर्तमान और भविष्य के लिए भाषा, संस्कृति, संस्कार, ज्ञान, जीवन मूल्य और जिनवाणी सुरक्षित रखना चाहते हैं तो ये प्रयत्न हमें करने ही होंगे।

– प्रो. डॉ. अनेकांत कुमार जैन,
नई दिल्ली