देशनोदय चवलेश्वर – निर्यापक श्रमण मुनिपुंगव श्रमण संस्कृति सूर्य 108 श्री सुधासागर जी महाराज ने प्रवचन मे कहा
गुरु का सम्यक दृष्टि नहीं पहचानता मिथ्यादृष्टी पहचानता है
1.दोष-जो जो दोष आप में हैं, वह आपके दोष भगवान ने तो नहीं है, जो बड़ा आदमी अपने से छोटे हैं, मैं दोष नहीं चाहता है, तो आपको आपने में दोष तो नहीं, वो बड़े मैं तो नहीं है देख कर लेना।
2.गुरु को कौन पहचानता-गुरु का सम्यक दृष्टि नहीं पहचानता, मिथ्यादृष्टी पहचानता है, मिथ्यात्व दशा में गुरु कार्यकारी है ,सम्यकदृष्टि को गुरु की खोज नहीं करनी होगा ,उसको तो खुद को गुरु बनने की तैयारी करना है, गुरु भगवान खोज रहा है ,समझ लेना मिथ्यादृष्टि हैं, उसका सब कुछ मिथ्यादृष्टि है, गुरु की पहचान करने को कहा है, गुरु भगवान को खोजो।
3.मिथ्यादृष्टि- कभी हमें ऐसा विचार आया कि मैं गलत कर रहा हूं, गलत रास्ते पर जा रहा हूं, कभी हमे विचार आया कि भगवान गुरु और जिनवाणी को देखकर ऐसा लगा हो, यह खोटे गुरु भगवान है, तो समझना कि अभी मैं मिथ्यादृष्टि हु ।
4.कर्म भुत-दुश्मनों से निपटना सरल है अपनों से निपटना कठिन होता है, पड़ोसी के काटे बोना आसान है, घर के कांटे निकालना कठिन है, दुसरे पदार्थों को छोड़ देते हैं, परेशान दिख रहा है लेकिन परेशान कौन कर रहा है, यह नहीं दिख रहा है, यह भूत है जिसे कर्म कहते हैं ,कर्म दिखता ही नहीं है, सभी इससे परेशान हैं, हम कर्म की कठपुतली तो नहीं हैं, हम जैसा कर्म काम कराते हैं, करते है कर्म जैसा काम कराएगा, वैसा करगे जैसा कर कर्म कर्म के गुलाम तो नहीं ,डर तो नहीं है कि कर्म से डरने वालों को कायर कहते हैं
5.चोर को हीरा-खोजो इस संसार में बहुत सारे भगवान भरे पड़े हैं जोहरी बनना पड़ेगा।हीरा को चोरी नहीं पहचाना है चोर को हीरा पहचानना है
प्रवचन से शिक्षा-हमें ऐसा विचार आया कि मैं गलत कर रहा हूं
सकंलन ब्र महावीर