क्या जैन का अर्थ बणिया होता है,आमतौर पर सबकी यह धारणा होती है कि जैन से आशय बणिया/वैश्य वर्ण की एक जाति है। अनूप मंडल भी जैन को बणिया मानकर ही इस धर्म का विरोध करता है। अगर आप भी ऐसा मानते हैं तो आप बहुत बड़ी गलतफहमी के शिकार है।
जैन कोई जाति या वर्ण नहीं है,बल्कि यह स्वतंत्र धर्म है,इसे समझने के लिए हमें इसके इतिहास की ओर जाना पड़ेगा, जैन धर्म का अपना स्वतंत्र इतिहास है,यह भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे पुराना धर्म है,यहां तक कि वैदिक आर्यों के भारत आगमन के भी पहले भी यहां के मूलनिवासियों का धर्म यही था,और इसके अनुयायी ही जैन थे, जिन्हें तत्कालीन समय में भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता था।
अधिकतर लोग जानकारी के अभाव में जैन-धर्म को वैष्णव या हिंदू से जोड़कर देखते हैं,किंतु मूलनिवासी अनार्य जातियों के देवता शिव और प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव एक ही पुरुष थे,आर्यो के भारत आगमन से पहले यहां का धर्म ऋषभदेव का अनुयायी ही था,और प्रत्येक मानव मात्र का धर्म था।
अंतिम तीर्थंकर महावीर के बाद जैन-धर्म दो परंपराओं में बंट गया,दिगंबर व श्वेतांबर। दिगंबर दक्षिण भारत में अधिक प्रचारित हुआ और श्वेतांबर उत्तर भारत में,इस समय तक भारत में जाति व्यवस्था नहीं थी,बल्कि वर्ण व्यवस्था थी और चारों वर्णो( ब्राह्मण,शूद्र,वैश्य,क्षत्रिय) के लोग जैन-धर्म मानते थे।
एक समय ऐसा आया जब वैदिक आर्यो(शंकराचार्य आदि) के अत्याचार से उत्तर भारत में जैन-धर्म मृतप्राय हो गया,व दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों तक सीमित रह गया। शंकराचार्य के पहले भारत के सभी लोगों,समूहों,कुलो,जातियों में जैन-धर्म मौजूद था,और किसी तरीके का छुआछूत या भेदभाव नहीं होता था।
जब पुनः परिस्थितियां अनुकूल हुई तब दक्षिण भारत व उत्तर भारत में कुछ जगह सुरक्षित स्थानों पर बचे जैन मुनियों ने घूम-घूमकर पुनः लोगों को जैन धर्म से जोड़ने का कार्य किया।
इसमें सर्वाधिक सहयोग जैन सम्राट अमोघवर्ष का मिला,यह राष्ट्रकूट वंश का कट्टर जैन राजा था,जो कर्नाटक प्रांत का शासक था,इसने पूरे भारत को जीता और जगह-जगह राजपूत राजाओं को जैन धर्म अपनाने, प्रचार-प्रसार करने के लिए प्रोत्साहित किया (खासकर उत्तर भारत में)।
अमोघवर्ष के ही कारण उत्तर भारत में जैन-धर्म दुबारा पनपा,और राजाओ ने पुनः इसे स्वीकार किया।
इस दौरान उत्तर भारत में जाति प्रथा का आगमन होने लगा,जैन मुनियों ने भी समयानुकूल परिस्थितियों के अनुरुप जो लोग जैन बने उन्हें गांव,नगर,व्यवसाय के आधार पर नई-नई जातियों में बांट दिया।
धार्मिक,आर्थिक दृष्टि से लोग संपन्न बने इस भावना से जैन मुनियों ने लोगों को व्यापार और कृषि कर्म से जुड़ने की प्रेरणा दी,इसी का कारण रहा कि तमाम उत्तर भारतीय जैन व्यापारी या कृषक बने, धीरे-धीरे कृषिकर्म छूटता चला गया और व्यापार एकमात्र आजीविका का साधन रह गया।
इसके ठीक उलट दक्षिण भारत में हुआ यहां जैन-धर्म पर्याप्त फलां-फूला,आज भी दक्षिण भारत की सब जातियों में जैन धर्म मौजूद हैं, दक्षिण भारत के बहुसंख्यक जैन खेती करे आजीविका चलाते हैं,यह महाराष्ट्र से लेकर कर्नाटक,केरल, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश के गांवों-कस्बों में फैले हुए हैं।
वर्तमान भारत में 50 % जैन व्यापारी जातियों से है और 50 % कृषक जातियों से।
महाराष्ट्र में कासार, चतुर्थ,पंचम,सैतवाळ जैसी बड़ी व ताकतवर जैन जातियां हैं जो सभी कृषि से जुड़ी है। कोल्हापुर,सांगली जिलों के अधिकांश गांवों में जैन लोगों की जनसंख्या 80% तक है,ठीक यही स्थिति कर्नाटक के बेलगांव,बागलकोट,धारवाड़ जिलों में भी है।
कर्नाटक के तुलुनाडू क्षेत्र में जैन धर्म आज भी होयसाल वंशीय क्षत्रियो के बीच है,यह बड़े जमींदार व कृषक है।
इसी तरह पूर्वोत्तर भारत में सराक नाम की एक कृषक जाति है जिनका जनसंख्या 5 लाख से अधिक है,यह बंगाल, झारखंड,ओडिशा के गांवों में फैले हैं व कृषि कर्म से आजीविका निर्वाह करते हैं।
हरियाण,पंजाब प्रदेशों में लाखों की संख्या में जाट,गुर्जर समाज में सैकड़ों सालों से जैन धर्म है,यह सभी लोग कृषि कर्म ही करते हैं।
हाल ही में कई प्रदेशों में स्वर्ण,दलित,आदिवासी,OBC समुदाय के लाखों लोगों ने जैन-धर्म अपनाया है,और यह अधिकतर कृषिकर्म से जुड़े है।
इसलिए अगर किसी की यह धारणा है कि जैनधर्म बणियो की एक जाति है तो उन्हें अपने मन से इस वहम को निकाल देना चाहिए।
जैन एक स्वतंत्र धर्म है जो जातिप्रथा के अनुसार नहीं बल्कि समतावाद के सिद्धांत पर चलता है,और इसमें सभी वर्ग,समुदाय के लोग बिना भेदभाव के रहते हैं।