अक्षय तृतीया पर विशेष -डरिये नहीं, बड़ी आसान है नवधा भक्ति- बस क्रियायें विवेकपूर्ण और भाव पवित्र रखिये!

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सान्ध्य महालक्ष्मी / 14 मई 2021
प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ जी, 6 माह कायोत्सर्ग तप के नियम पूरा होने के बाद आहार के लिये उठे। उन्हें वैसे न भूख सता रही थी, न प्यास, पर अवधि ज्ञान के महामुनिराज के मन में विचार आया कि वर्तमान और भविष्य में, मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से जो तप करेंगे, तो उनकी आहार के बिना शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाएगी। मोक्ष, अर्थ व काम का साधन धर्म पुरुषार्थ है, धर्म का साधन शरीर और शरीर अन्न पर निर्भर है, अत: परम्परा से अन्न भी धर्म का साधन है।
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अत: उन त्यागी – मोक्षमार्गियों के लिये लोगों के निर्दोष आहार ग्रहण विधि दिखाने का यही समय है। आज भी अनेक जैन परिवार ऐसे हैं, जो मुनियों को आहार देना चाहते हैं, पर डरते हैं, नवधा भक्ति नहीं जानते, और आज का कड़वा सच यह है कि आज कई संत श्रावकों की बजाय अपने साथ ही खाना बनाने वाले रखने लगे हैं, कहीं अनुरोध करना पड़ता है, आज आप सबके लिये यह जानकारी, फिर आप भी जरूर दीजिये , क्योंकि दान के चार प्रकार में आहार दान प्रमुख हैं, इससे असंख्य कर्मों की निर्जरा होती है। शुरूआत करते हैं, नवधा भक्ति की नौ सीढ़ियों की जानकारी से :-

1. पड़गाहन – मुनिराज दायें हाथ से मुद्रा लेकर आहार के लिये निकलते हैं, मन में कुछ संकल्प लेकर, इस मुद्रा को प्रतिज्ञा रूप में लेकर श्रावकों की ओर बढ़ते हैं। मुनिराज को अपनी ओर आते हुये देखकर, श्रावक-श्राविका विनय के साथ कहते हैं – हे स्वामी, नमोस्तु-नमोस्तु अत्र-अत्र (यहां आइए – यहां आइए), तिष्ठ-तिष्ठ (ठहरिये-ठहरिये) 3 बार बोलते हुए, आहार-जल शुद्ध है, कहते हुए मुनिराज का भक्तिपूर्वक आह्वान करते हैं।

(आपने देखा होगा कि कुछ मुनिराजों के लिये बहुत भीड़ होती है, आहार के लिए। तब मुनिराज उनकी ओर देखते हैं, आगे बढ़ जाते हैं, जैसे कुछ ढूंढ रहे हों, वे किसी अपने को नहीं, बल्कि अपने संकल्प का ध्यान रखते हैं, कि आज मैं आहार उससे लूंगा, जिसने फलाना किया हो, हाथ में हो, और वह मिलने पर उसके आगे मुद्रा में ही खड़े हो जाते हैं, फिर वह श्रावक परिवार पूरे हर्ष विनय के साथ मुनिराज की तीन परिक्रमा लगाकर, अपने चौके (रसोई) की ओर ले जाते हैं।)

2. उच्च आसन (पाटा) – चौके में ले जाकर वे मुनिराज को उच्च आसन पर बैठने का निवेदन करते हैं – ‘महाराज श्री उच्च आसन पर विराजिए’। यह कहना कभी न भूलें, कई श्रावक जोश में भूल जाते हैं। उच्च आसन होता है – लकड़ी का पाटा।

3. पाद प्रक्षालन – आपके विनय पर मुनिराज पाटे पर बैठ जाते हैं। अब आप प्रासुक जल से मुनिराज के चरणों का प्रक्षालन करते हैं, यानि चरणों को परात में महाराज रखते हैं और आप जल से उनके चरणों को धोते हैं, साफ-श्वेत वस्त्र से उनके चरण पोंछते हैं। पाद प्रक्षालन के जल को मस्तक पर लगाकर हम धन्य हो जाते हैं।

4. पूजन – अब पाद प्रक्षालन वाली परात हटाकर, अष्ट द्रव्य की थाली से पूजन करते हैं। ध्यान रखिये मुनिराज अभी भी अपनी मुद्रा नहीं छोड़ते हैं। मुनिराज की पूजा स्थापना से महाअर्घ्य तक नौ संक्षिप्त अर्घ्यों के साथ पूजा की जाती है, इसी भावना के साथ, धन्य हैं, आज मुनिराज हमारी कुटिया में आहार के लिये आये हैं, उनका गुणगान करूं और मेरे जन्म-मरण का संताप, क्षुधा, मोह, अष्ट कर्मों का क्षय हो।

5. नमोस्तु करना – पूजन के बाद, मुनिराज को नमस्कार कर पूरी विनय के साथ ‘गुरुवर नमोस्तु – नमोस्तु – नमोस्तु’ बोलिये। ये नवधा भक्ति में पांचवीं भक्ति है।

6-7-8. : मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि – अब छठी, सातवीं और आठवीं भक्ति के रूप में आप निर्मल, पवित्र, विनयशील भावों के साथ मुनिराज को कहते हैं कि ‘हे मुनिराज मैं मन से, वचन से, काय से शुद्ध हूं, यानि मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि।’

9. आहार-जल शुद्ध – अब अंतिम यानि नवीं भक्ति मुनिराज से निवेदन करते हैं कि अपनी मुद्रा को छोड़ कर आहार ग्रहण कीजिए।
इस तरह मुनिराज के आहार के लिये हमारी नवधा भक्ति पूरी होती है और महाराज मुद्रा छोड़कर आहार के लिये खड़े हो जाते हैं, दोनों हथेली जोड़ कर अंजुलि बना लेते हैं, यानि 24 घंटे में एक बार आहार के लिये। पैरों के बीच थोड़ा अंतर और हथेलियां जुड़ी हुई… इस तरह की आहार की प्रक्रिया प्रारंभ होती है।