जिन बालक ‘वर्द्धमान’ का औदारिक शरीर था अकल्पनीय, अतुलनीय, शोभनीय

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जिन बालक ‘वर्द्धमान’ का रूप देखते जायें, तो यह उमरिया खत्म हो जाये, पर संतोष की प्यास ज्यों की त्यों रह जाये। शब्दों की तो छोड़िये, नेत्रों में बांधना संभव नहीं, जब ज्ञान-दर्शन का भण्डार सौधर्म इन्द्र, सर्वांग पर सहस्त्र नेत्र बनाकर प्यासा रह गया, तो हम किस खेत की मूली हैं।
वर्द्धमान का मस्तक मानो धर्मरूपी मेरु के शिखर के समान देदीप्यमान, कपोल और मस्तक की क्रान्ति एकसाथ पूर्णिमा के चन्द्रमा की ज्योत्सना को फीका कर दें, कमल नेत्रों की अद्वितीय शोभा – जिन के खुलने मात्र से तीनों लोकों के प्राणी तृप्त हो जाते हैं।

कानों पर लटकते कुण्डल अपने को धन्य मानते गदगद हो रहे थे, जैसे ज्योतिष चक्र से घिरे हुए हैं। मुखरूप चन्द्रमा, गजब, जिसके होठ हिलाने मात्र से संसार का कल्याण करने वाली ध्वनि की अमृत धारा बहती हो। नाक – होंठ – दांत की सुन्दरता स्वर्ग की सभी अप्सराओं के सौन्दर्य को फीका कर देती है, आज जो नर, नारी की सुन्दरता पर लट्टू होता है, उसने आपके चेहरे की कल्पना भी कर ली तो ‘स्त्री वेद’ को छोड़ आपके चरणों में लोटता रहेगा।

रत्नों का हार वक्षस्थल पर आने को धन्य मानता था कि तीनों लोकों की लक्ष्मी मेरे भीतर है। भुजाओं पर लगे आभूषण अपने को कल्पवृक्ष से कम नहीं समझते थे। अंगुलियों व दस नख से प्रकाशित किरणें दस धर्मों को प्रकाशमान करती थी। गहरी नाभि सरस्वती एवं लक्ष्मी का क्रीड़ास्थल रूपी सरोवर की भांति प्रतीत होती थी। जिन वर्द्धमान स्वामी के वस्त्र, पटकी करघनी ऐसी मालूम होती थी, जैसे वह कामदेव को बांधने का नागपाश हो।

जिन बालक के दोनों बाजु विस्तीर्ण एवं पुष्ट थे। यद्यपि वे कोमल थे, फिर भी व्युत्सर्गादि तप करने में उनकी समानता नहीं की जा सकती थी।
और उनके चरणों की तुलना किससे करें, जिनकी सेवा स्वयं इन्द्र-धरणेन्द्र आदि देव करें। क्या कहें, उनके
शिखा से नख तक, हर अंग-प्रत्यंग की शोभा अपूर्व थी। वर्णन शब्दों में बांधना असाध्य है, गुणों का वर्णन करने में यह जीवन कम पड़ जाये।
दिव्य प्रकाशमान, पवित्र एवं सुगन्धित परमाणुओं से प्रभु का अद्वितीय शरीर बना था। हां भाई! वज्र-वृषभ-नाराच-संहनन था।

जिन बालक के शरीर में मद, स्वेद, रोष, रागादिक तथा वालादिक तीनों दोषों से उत्पन्न रोग किसी भी समय नहीं होते थे। उनकी मधुर वाणी तीनों लोकों को आनंदित करने वाली थी। सभी को सत्य एवं शुभ मार्ग बतलाने वाली, दूसरे खोटे मार्ग को कभी न व्यक्त करने वाली थी।

दिव्य शरीर के कुछ लक्षण, इस प्रकार हैं :-
श्री वृक्ष, शंख, परम, स्वस्तिक, अंकुश, तोरण, चंवर, श्वेत छत्र, ध्वजा, सिंहासन, दो मछलियां, दो घड़े, समुद्र, कछुआ, चक्र, तालाब, विमान, नागभवन, पुरुष-महिला का जोड़ा, विशालकाय सिंह, तोमर, गंगा, इन्द्र, सुमेरू, गोपर, चन्द्रमा, सूर्य, घोड़ा, वजिना, दृदंग, सर्प, माला, वीणा, बांसुरी, रेशमी वस्त्र, देदीप्यमान कुंडल, विचित्र आभूषण, फल सहित बगीचा, पके हुए अनाज वाले खेत, हीरा रत्न, बड़ा दीपक, पृथ्वी, लक्ष्मी, सरस्वती, सुवर्ण कमलबेल, चूड़ा रत्न, महानिधि, गाय-बैल, जामुन का वृक्ष, पक्षिराज, सिद्धार्थ वृक्ष, महल, नक्षत्र, ग्रह, प्रातिहार्य आदि 108 लक्षणों एवं 900 सर्वश्रेष्ठ व्यंजनों से, विचित्र आभूषणों से एवं मालाओं से जिन बालक का स्वभाव, सहज, दिव्य, सभी को आनंदित करने वाला था। यानि सभी शुभ लक्षण रूप सम्पदा, प्रिय वचन – विवेकादि गुण, वे सभी पुण्य कर्मों के उदय से जिन बालक में समाविष्ट थे।

बलवानों में श्रेष्ठ, महान तपस्वी, मोक्ष सुख में लीन, कामरूपी सुख से विरक्त – ऐसे जिन बालक को नतमस्तक प्रणाम, जय वर्द्धमान।