सम्यकदर्शन, ज्ञान और चारित्र ही मोक्षमार्ग है। ऐसी बात को बहुत सरल रुप से बताने वाले आचार्य भगवन्त प.पू. आध्यात्म योगी १०८ श्री विशुद्ध सागर जी महाराज यथा नाम तथा गुण रुप है। जैसा नाम है, वैसा ही आचरण है। आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज को तत्वो का इतना गहन चिन्तवन है कि जिनवाणी उनके कण्ठ मे विराजमान रहती है। आचार्य श्री के प्रवचन इतने सरल व स्यादवाद से भरे होते है कि हमारे अष्टमूल गुण तो क्या, अणुव्रत और महाव्रत तक लेने के भाव हो जाते है। इनके प्रवचन मे स्यादवाद व अनेकान्त रुपी शस्त्र से मिथ्यात्व का शमन तो सहज ही झलकता है। प्रवचन सुनकर ऎसा लगता है कि हमारे ही बारे मे बात कही जा रही हो। आचार्य श्री के बारे मे जितना कहे कम है, हे गुरुवर, आचार्य भगवन्त नमोस्तु शासन को सदा जयवतं रखे।
परम पूज्य आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज के बचपन से प्रारंभिक क्रियायें उनके भविष्य में वैराग्य की और बढ़ते क़दमों का संकेत दे रही थी।उनका विवरण निम्न प्रकार से है।
अध्यात्मयोगी श्रमणाचार्य श्री 108 विशुद्धसागर जी महाराज जी का संक्षिप्त जीवन परिचय
पूर्व नाम : बा.ब्र.श्री राजेन्द्र कुमार जी जैन(लला),पिता श्री : श्री रामनारायण जी जैन ( समाधिस्थ – मुनि श्री विश्वजीत सागर जी ),माता श्री : श्रीमती रत्तीबाईजी जैन ( समाधिस्थ – क्षुल्लिका श्री विश्वमतिमाताजी ),जन्म स्थान : भिण्ड (म.प्र.),गृह ग्राम : रूर,जन्म दिनांक: 18 दिसम्बर 1971
लौकिक शिक्षा: दसवीं,भाई / बहिन : पाँच 5 , बहिन २,ब्रह्मचर्यव्रत:- 16 नवम्बर 1988 तीर्थक्षेत्र बरासौं जी,क्षुल्लक दीक्षा : 11 अक्टूबर 1989 , भिण्ड ( म . प्र . ),नामकरण : क्षुल्लक श्री यशोधर सागर जी
ऐलक दीक्षा : 19 जून 1991 , पन्ना ( म . प्र . ) मुनि दीक्षा : 21 नवम्बर 1991 कार्तिक सुदी पूर्णिमा
मुनि दीक्षा स्थल : तीर्थक्षेत्र श्रेयांसगिरि , जिला – पन्ना (म.प्र.) नामकरण : *मुनि श्री विशुद्धसागर जी
आचार्य पद:- 31 मार्च 2007 महावीर जयंती स्थान औरंगाबाद ( महाराष्ट्र ),दीक्षा गुरु परम पूज्य गणाचार्य 108 श्री विरागसागर जी महाराज,भाषाज्ञान : हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत
साहित्य सृजन शताधिक आध्यात्मिक कृतियाँ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा: लगभग 100 में 1 या 2 कम 👣विहार क्षेत्र : मध्यप्रदेश , उत्तरप्रदेश , छत्तीसगढ़ महाराष्ट्र , कर्नाटक , राजस्थान ,विहारपग विहार : 60000 km लगभग न्याय – अध्यात्म शास्त्रों का अध्ययन / अध्यापन एवं मौन साधना प्रसिद्धि : आगम एवं अध्यात्ममयी सरल – सुबोध प्रवचनकाररस त्याग : नमक , दही , तेल का जीवन पर्यन्त के लिए
आचार्य श्री के बचपन की प्रवत्ति —–
१. बचपन से ही जिनालय जाना:- महाराज श्री अल्पायु से अपने पिता जी श्री रामनारायण जी एवं माता जी श्रीमती रत्ती देवी एवं अपने अग्रजों के साथ प्रतिदिन श्री जिन मंदिर जी दर्शनों के लिये जाने लगे थे।
२. रात्रि भोजन एवं अभक्ष्य वस्तुओं का त्याग:-लला राजेंद्र (आचार्य श्री का बचपन का नाम)ने ७ वर्ष की अल्पायु में श्री जिनालय में रात्रि भोजन का त्याग एवं अभक्ष्य वस्तुओं के त्याग का नियम ले लिया था और उसका पालन भली प्रकार से किया ।
३. सप्त व्यसनों का त्याग एवं अष्ट मूल गुणों का पालन:- लला राजेंद्र जब ८ वर्ष के थे तभी से उन्होंने सप्त व्यसन का त्याग एवं अष्ट मूल गुणों का पालन करना प्रारंभ कर दिया था।
४. बिना देव दर्शन भोजन न करने का नियम:- लला राजेंद्र ने १३ वर्ष की अल्पायु में तीर्थराज श्री दिग. जैन सिद्ध क्षेत्र शिखर जी में बिना देव दर्शन के भोजन न करने का नियम ले लिया था ।
५. स्वत: ब्रहमचर्य व्रत अंगीकार :- अल्पायु में लला राजेंद्र ने अपने ग्राम रुर के जिनालय में भगवान् के समीप स्वयं ही ब्रहमचर्य व्रत ले लिया था ।
६.अनेक तीर्थ क्षेत्रों की वंदना करने का सौभाग्य :- राजेंद्र लला ने अपने पिता जी माता जी एवं अनेक परिवार जनों के साथ बचपन से ही शिखर जी,सोनागिरी जी,एवं अनेक तीर्थ क्षेत्रों के दर्शन करने एवं वह विराजमान पूज्य महाराजों के दर्शन करना भी उनके वैराग्य का एक बिंदु है।
७. परमपूज्य गुरुवर १०८ मुनि श्री विराग सागर जी महाराज के प्रथम दर्शन अपनी बहन के यहाँ नगर भिंड में सन १९८८ में प्रथम बार किये ।उनके प्रवचन और दर्शन से राजेंद्र लला के मन में वैराग्य कके बीज अंकुरित होने लगे।
८. जैन धर्म की पुस्तकों का अध्ययन ,मनन ,चिंतन :- राजेंद्र भैया बचपन से ही ग्रथों का अध्ययन करके उन पर मनन एवं चिंतन करने लगे थे ,जो उनके वैराग्य की और बढ़ने का एक माध्यम बना।
९.भिंड में आदरणीय संयमी महानुभावों से भेंट :- जैन मंदिर भिंड में आदरणीय पं. मेरु चन्द्र जी(परमपूज्य मुनिश्री विश्व कीर्ति सागर जी महाराज) वर्तमान में समाधिस्थ एवं बाल ब्र. श्री रतन स्वरूप श्री जैन (वर्तमान में आचार्य श्री विनम्र सागर जी महाराज) से मुलाकात भी भैया राजेंद्र के पथ पर बढ़ने में सहायक हुई।
१०. परम पूज्य गुरुवर श्री का वर्ष १९८८ का भिंड में वर्षा योग :- पूज्य मुनि श्री १०८ विराग सागर जी महाराज का १९८८ में पवन वर्षा योग भिंड नगर में हुआ ।भैया राजेंद्र उस अवधि में अपनी बहन के यहाँ भिंड में रहकर पूज्य गुरुवर के संघ में आते रहते थे।इस से लम्बे समय तक गुरुवर का सानिध्य मिला उनके प्रवचन का भी प्रभाव पड़ा ।जिस से उनका मन विराग सागरजी में चरणों में रम गया और वे संघ में ही रहने लगे और वह से विहार करने पर संघ के साथ विहार भी किया।
११. ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार करना:- श्री राजेंद्र भैया पूज्य गुरुवर मुनि श्री १०८ विराग सागर जी के साथ विहार करते हुए अतिशय क्षेत्र बारासों पधारे ।यद्यपि राजेंद्र ने रुर नगर में जिनालय के सामने दीपावली के दिन ब्रह्मचर्य व्रत के लिया था फिर भी यहाँ गुरुवर के समीप दिनांक १६ नवम्वर को १७ वर्षकी उम्र में ब्रहमचर्य व्रत पुन: अंगीकार किया।
१२. ब्रह्मचर्य अवस्था में नग्न होकर अभिषेक करना:- १९८८ में एकांत मे ब्रह्मचर्य अवस्था में नग्न होकर भगवान् का अभिषेक किया था जो उनके भविष्य का संकेत दे रहा था।
१३. क्षुल्लक दीक्षा:- राजेंद्र भैया ने आचार्य विराग सागरजी के कर कमलो से दिनांक ११ अक्टूबर १९८९ को भव्य क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की।उनका नाम रखा गया क्षुल्लक श्री यशोधर सागर जी इस समय इनकी आयु १८ वर्ष की थी।
१४. ऐलक दीक्षा:- परम पूज्य क्षुल्लक श्री यशोधर सागर जी ने आचार्य विराग सागरजी के कर कमलो से २ वर्ष बाद दिनांक १९ जून १९९१ को भव्य ऐलक दीक्षा पन्ना नगर मे ग्रहण की।
१५. मुनि दीक्षा:- ऐलक दीक्षा के ६ माह बाद ही परम पूज्य ऐलक श्री यशोधर सागर जी ने २० वर्ष की आयुमे अपने गुरुवर से श्रेयांस गिरी में दिनांक २१-११-१९९१ को भव्य मुनि दीक्षा ग्रहण की,नाम रखा गया मुनि श्री १०८ विशुद्ध सागर जी महाराज ।
१६. आचार्य पदारोहण:-परम पूज्य मुनि श्री १०८ विशुद्ध सागर जी महाराज को परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विराग सागर जी के कर कमलो से ३१ मार्च २००७ को मुनि दीक्षा के १५ वर्ष ६ माह बाद ३५ वर्ष की आयु में दिनांक ३१ मार्च २००७ को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया।
आचार्य दिवस पर नमोस्तु नमोस्तु गुरुवर
(साभार)
डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन ,संरक्षक शाकाहार परिषद्