बीसवे तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी : ज्योतिष दृष्टि से शनि ग्रह संबंधी दोषों के लिए विशिष्ट प्रभावक्

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इस अवसर्पिणी काल के बीसवे तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी का जन्म जेष्ठ कृष्ण अष्टमी के दिन राजगिरी नगरी में हरिवंश के राजा सुमित्र की महारानी पद्मावती की रत्न कुक्षी से हुआ था।

जन्म से ही 3 ज्ञान (मति ज्ञान श्रुत ज्ञान और अवधि ज्ञान) के धारक थे मुनिसुव्रत स्वामी ने यौवन अवस्था आने पर राजपाट संभाला और गृहस्थ आश्रम का पालन किया उसके पश्चात वैराग्य भाव जागृत होने पर दीक्षा अर्थात समस्त वैभव का त्याग कर सन्यास लिया जिसको लेते ही चौथा मन पर्यव ज्ञान उत्पन्न हुआ।

11 माह की साधना के पश्चात चंपक वृक्ष के नीचे केवल ज्ञान और केवल दर्शन प्राप्त हुआ जिसके पश्चात आपने चतुर्विध संघ रूपी तीर्थ की स्थापना की और जीव मात्र को कल्याण मार्ग बताया।

आपके 18 गणधर थे।
श्री मुनिसुव्रत स्वामी के समय में ही 63 शलाका पुरुषों मैं से बलदेव श्री पद्म जी जिनको श्री रामचंद्र जी के नाम से भी जाना जाता है ,हुए थे।
उनके साथ वासुदेव लक्ष्मण जी, प्रति वासुदेव रावण, 16 सतियो में से माता कौशल्या एवं सीता जी भी हुई थी।
जिनमें से बलभद्र पद्म जी ने बाद में दीक्षा लेकर चारों घाती कर्मों का क्षय करते हुए केवल ज्ञान को प्राप्त किया और 8 कर्मों का क्षय कर के मोक्ष प्राप्त कर सिद्ध हो गए।

रावण भी अभी अपने पाप कर्मों का नारकीय में प्रायश्चित करने के बाद भविष्य में ऐरावत क्षेत्र से तीर्थंकर बनेंगे l
इस प्रकार बहुत बड़े समय तक धर्म मार्ग प्रवर्तन करने के बाद जेष्ठ कृष्ण नवमी को 1000 साधुओं के साथ आठों कर्मों का क्षय कर आप श्री सम्मेत शिखरजी से मोक्ष गए।
श्री मुनीसुव्रत स्वामी को ज्योतिष दृष्टि से शनि ग्रह संबंधी दोषों के लिए विशिष्ट प्रभावक् माना जाता है।

आपका आराध्य मंत्र
ऊँ ह्री श्रीं मुनीसुव्रत स्वामी ने नमः

श्री मुनिसुव्रत स्वामी के शासन यक्ष “वरुण देव” हैं शासन यक्षिणी “नरदत्ता देवी” है।

मुनिसुव्रत स्वामी का चिन्ह कछुआ है। कछुआ एक ऐसा प्राणी है जो समुद्र में और जमीन पर समान रूप से चल सकता है। अर्थात इससे प्रेरणा मिलती है जैसी भी परिस्थितियां हो उसके अनुरूप अपने को ढाल आगे बढ़ना चाहिए।

दूसरा – कछुआ जब कोई खतरा आता है तो अपने को खोल में ढक लेता है। उसी प्रकार हमें भी संसार में पाप कर्मों से बचाव के लिए सामायिक आदि धर्म मार्ग का अस्रव लेना चाहिए।