जन्म एवं जन्म स्थान – कविवर संतलालजी का जन्म सन् 1834 में नकुड(सहारनपुर,उ.प्र.) निवासी लाला शीलचंद जी के परिवार में हुआ।
देहपरिवर्तन – कविवर संतलाल जी का देहपरिवर्तन सन् 1886 में 52 वर्ष की आयु में समाधि भावना पूर्वक हुआ ।
शिक्षा – आरंभिक शिक्षा नकुड (सहारनपुर) में की, बाद में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए रूड़की (उत्तराखंड) के थामसन कालेज में अध्ययन किया।
स्वत: स्वाध्याय के बल से शास्त्र अभ्यास में विशेष दक्ष थे, वे अल्प आयु में ही जिनागम के मर्मज्ञ बन गये थे। जिनागम के गहन अध्ययन से वे अध्यात्मविद्या में विशेष पारंगत हो गये थे।
कर्त्तत्व उन्होंने अनेकों बार अन्य मतावलंबियों के साथ शास्त्रार्थ किया और जिनधर्म की सत्यता /महत्ता को उत्तर भारत में सब जगह प्रचारित किया। उनके सत्य संभाषण से सभी जगह जिनधर्म का प्रचार-प्रसार हुआ। उन्होंने जैन धर्मावलंबियों में प्रचलित अनेकों कुरीतियों को समाप्त किया।
उस समय उत्तर भारत में प्राय: हिंदू रीति-रिवाज से विवाह आदि संस्कार किए जाते थे, उन्होंने जैन विधि-विधान से विवाह आदि संस्कार प्रारंभ किए और भी अनेकों गृहीत मिथ्यात्व पोषक कार्यों से समाज को मुक्त कराया।
बचपन से असत्य भाषण न करने तथा शुभ कार्यों में ही रत रहने का संकल्प होने से इनका संतलाल नाम प्रचलित हो गया।
कृति – हिंदी (पद्यमय )भाषा में लिखा गया सिद्धचक्र विधान आपकी सर्वोत्कृष्ट रचना है।
यह सभी विधानों का राजा है।यह अष्टान्हिका पर्व पर विशेष रूप से किया जाता है,पर इसे अन्य शुभ अवसर पर भी किया जा सकता है। अष्टान्हिका के आठ दिन,मैनासुंदरी-श्रीपाल कथा और विधान की आठ पूजाओं के संयोग जुड़ने से यह विधान विशेष रूप से अष्टान्हिका पर्व पर किया जाता है।
संतलाल जी का नाम छहढाला के रचनाकार कविवर दौलतराम जी की तरह अमर हो गया। अद्भुत भेंट उन्होंने जैनसमाज को प्रदान की, जिसका उपकार जैनसमाज कभी भी सदियों तक विस्मृत नहीं कर सकता।
उन्हें अमर बनाने वाली यह महान रचना है।
सिद्धचक्र विधान की विशेषताएँ
यह आपकी स्वतंत्र रचना है, जो कि किसी की नकल नहीं है।
इसके पहले सिद्धचक्र विधान संस्कृत भाषा में भट्टारक शुभचंद और ललितकीर्ति ने लिखें थे। जिसमें पूजन के जलादि अष्टक छंद संस्कृत भाषा में है पर अर्घावली के मंत्र तो द्विगुणित रूप में है पर छंद किसी भी अर्घावली के साथ नहीं है।
हर पूजा की अर्घावली में दूने-दूने अर्घों/गुणों का विकास देखने में आता है, जो अन्य किसी भी विधान में नहीं है। इसके पीछे यही अभिप्राय है कि प्रतिदिन भावों की विशुद्धि दूनी-दूनी बढ़ती जाए तभी उत्कृष्ट विशुद्धि लब्धि से जीव करणलब्धि का उद्यम कर सकेगा।
एक विधान में अनेक विधानों का समावेश हुआ है।
प्रथम, द्वितीय और तृतीय पूजा में सिद्ध परमात्मा की विशेष आराधना के बाद चतुर्थ पूजा में गणधर वलय के 48 अर्घों के माध्यम से चौषठ ऋद्धि विधान समाहित है और सिद्धों का गुणगान है।पंचम पूजा में पापदहन विधान के माध्यम से पापाश्रव के 108 भेदों का दहन करने का उपाय शांति विधान के रूप में बताया और छठवीं पूजा कर्मदहन विधान के रूप में प्रसिद्ध है। सातवीं पूजा पंचपरमेष्ठी विधान के रूप में विख्यात है और अंतिम पूजा सहस्रनाम विधान के रूप में है। जिसमें तीन चौबीसी विधान भी गर्भित है। सहज ही एक विधान में अनेक विधानों का लाभ भव्यजीवों का मिलता है- जो इस विधान को सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ विधान सिद्ध करता है।
अध्यात्म का दिशाबोध कराने वाला यह हिंदी का संगीतमय समयसार है।
संतलाल जी अध्यात्म के विशेष ज्ञाता थे,इसी कारण विधान में अशुद्ध आत्मा को शुद्ध आत्मा बनाने का सरल उपाय भक्ति परक छंदों में निबद्ध किया है।
संसारी से सिद्ध होने का संविधान जिनागम में क्या है?
इसका सरलता से विधान/उपाय प्रथमपूजा की जयमाला में समझाया गया है।
विधान की आठों जयमालायें सिद्ध परमात्मा के स्वरूप, महिमा और उसे प्राप्त करने का सुगम विधान बता रही हैं, जो मूलतः पठनीय है।
प्रथम गुणस्थान से गुणस्थानातीत होने की सरल विधि क्या हो सकती है?
यह यदि जानना/समझना हो तो विधान का पूजन के साथ-साथ स्वाध्याय भी कीजिए। परमानंद का मार्ग प्रशस्त होगा।
इस कृति में भक्ति और अध्यात्म का अनूठा संगम है।
सिद्धभक्ति से आत्मशक्ति और आत्मशक्ति से मुक्ति का संविधान इसी कृति में उद्घाटित किया गया है।
इस विधान की अद्भुत महिमा है। इसे श्रीपाल के कुष्ठ -रोग निवारण और मैनासुंदरी की भक्ति तक सीमित नहीं किया जा सकता है।यह विधान भवरोग के निवारण में पूर्णतः समर्थ है।
वे छंद -रस और अलंकार शास्त्र के मर्मज्ञ थे।
इसमें लगभग विभिन्न प्रकार के 48 छंदों का प्रयोग किया गया है। सभी 9 रसों का वर्णन है और सभी प्रकार के अलंकारों का प्रयोग विधान में हुआ है।
इस विधान को अष्टान्हिका पर्व पर ही करने का कोई विशेष नियम नहीं है। कभी भी शुभ अवसर पर किया जा सकता है।
इस विधान को आठ दिन में भी ही करने का कोई विशेष नियम नहीं है। विधान में आठ पूजाएं होने से और अष्टान्हिका के आठ दिन होने से एक -एक दिन में एक -एक पूजा विशेष भक्ति के साथ करते हैं।यह विधान एक, तीन, पांच आदि दिनों में भी किया जा सकता है।
इस विधान में इंद्र, कुबेर आदि पात्रों को बनाने की अनिवार्यता नहीं है,इस विधान के माध्यम से स्वयं में सिद्ध परमात्मा बनने की पात्रता जागृत की जाती है। पात्र की पात्रता प्रकट की जाती है। मनुष्यगति के निकट भव्य जीव ही मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, अतः इन्द्र आदि की कल्पना जरूरी नहीं है।
इस विधान में कोई संसारिक लालच, प्रलोभन नहीं दिया गया है, विशुद्धभक्ति आध्यात्मिक भावों से की गई है जो जीवों के जीवन में मोक्ष के द्वार खोल देती है।
अन्यकृति
इसके अलावा पद्यमय ‘संतविलास’ नाम से आपकी अन्यकृति भी है। जो पद्यमय छंदों में निबद्ध है। जिसमें स्तुति,पद,भजन आदि गर्भित है।
आज संपूर्ण भारतवर्ष में हजारों सिद्धचक्र विधान अष्टान्ह्रिका पर्व हो रहे हैं, सिद्ध परमात्मा की आराधना तो हम सभी मनोयोग से करें ही पर जिन्होंने हमें सिद्ध परमात्मा से मिलने का संविधान बताया है,उन कविवर संतलाल जी को भी स्मरण करते रहें।
सिद्धभगवान जयवंत रहे।
सिद्धचक्र विधान जयवंत रहे।
संतलाल कविवर जयवंत रहे।
– डॉ अशोक जैन गोयल दिल्ली