परम पूज्य आचार्य रत्न विशुद्ध सागर जी महाराज ने प्रवचनों में कही कि-
जिनेन्द्र की पूजा, प्रतिष्ठा में भैया! सम्हलकर रहना जीवन में । भगवान् की खूब प्रतिष्ठायें करवाना, खूब विधान कराना लेकिन अपने भावों से कह देना कि भूखा रह लेना या पानी मिले पीकर सो जाना , नहीं मिले तो णमोकार पढ़ते हुये सल्लेखना ले लेना , लेकिन श्री जिनेन्द्र के द्वार पर अर्पित द्रव्य का उपयोग हम जीवन में कभी नहीं करेंगे ।
भया पर्याय का सुख तो उसी पर्याय में है । लेकिन निर्माल्य के भोगी जीव को साठ हजार वर्ष तक विष्ठा में कीड़ा बनना पड़ता है, ऐसा आगम में उल्लेख है ।
जो द्रव्य आपने अर्हन्त की वेदी के सामने, देव – शास्त्र गुरु के सामने समर्पित कर दिया हो, उसके सेवन करने में इतना पाप होता है तो, ज्ञानी ! जिस जीव ने अपनी पर्याय को अरहन्त की मुद्रा को समर्पित कर दिया हो, तो उसका सेवन अन्य कार्यों में करता है, उससे बड़ा पापी जगत् में कौन होगा?
दो ही जीव हैं । एक उच्चकोटि की दृष्टि का पात्र है और दूसरा उच्चकोटि की निंदा का पात्र है
एक तपस्या के लिये चक्री पद को छोड़ रहा है, उसकी क्या स्तुति करूँ? दूसरा विषय – कषाय की पुष्टि के लिये तपस्या छोड़ रहा है, उसकी क्या निन्दा करूँ?
गुण- भद्र स्वामी ‘ लिख रहे हैं “आत्मानुशासन ग्रन्थ ” में जो तपस्वी बनने के लिये चक्री का पद छोड़ रहा है, उससे श्रेष्ठ कोई प्रशंसनीय नहीं है जगत् में और जो विषय की पुष्टि के लिये तपस्वी पद छोड़ रहा है , उससे बड़ा निन्दनीय कोई पुरुष नहीं है