जैन-धर्म भारत का मूलधर्म रहा है, भारत के चारों कोनों में एक समय करोड़ों जैन थे,जिन्हें आज अन्य कई धर्मों में धर्मान्तरित कर दिया गया है, ऐसे ही एक जैन समुदाय है “सराक”। सराक पूर्वांचल में जैन-धर्म के जीवन्त प्रतीक रहे हैं| यह पश्चिम बंगाल, झारखंड, आंध्र प्रदेश, ओडिशा के गांवों में फैले हुए हैं, इनकी संख्या लाखों में है, यह इस क्षेत्र के मूल जैन रहे हैं| सराक शब्द संस्कृत के श्रावक का अपभ्रंश है। सैकड़ों वर्षो तक दिगंबर मुनिराजो का समागम ना मिलने के कारण और वैदिक राजाओं के अत्याचारों से यह जैन-धर्म से दूर हो गए, आज भी जहां सराक जैन है उन गांवों के आसपास में तीर्थंकरों की दिगम्बर जैन प्रतिमाएं यत्र-तत्र बिखरी है। तीर्थंकर ऋषभदेव के “खेती करो या ऋषि बनो” के सिद्धांत को अपनाते हुए यह आज भी खेती-बाड़ी करके आजीविका कमाते हैं, सर्वप्रथम गणेशप्रसाद वर्णी, जिनेन्द्र वर्णी, ब्र. शीतल प्रसाद जी आदि विद्वानों ने इनको जैन-धर्म की मूलधारा में जोड़ने का प्रयास किया। पश्चात् आचार्य विद्यासागर जी ने ईसरी चातुर्मास के समय इनके लिए शिविर आदि लगवाए व इनके गांवों से विहार करके खंडगिरी-उदयगिरि की ओर विहार किया। पश्चात् सराकोद्धारक आचार्य ज्ञानसागर जी ने इनके उद्धार का प्रयास शुरू किया। जो आज तक जारी है|
आचार्यों ने कहा है ‘न धर्मो धार्मिकैर्विना।’ बिना अनुयायियों के धर्म भी नहीं चल सकता, हमें कम से कम हमारे पुराने बिछड़े जैन बंधूओ को मूलधारा में लाने का प्रयत्न तो करना ही चाहिए। आचार्य श्री विद्यासागर जी ने एक बार स्व.पंडित रतनलाल जी बैनाडा़ को नियम दिलवाया था कि हर साल एक नए व्यक्ति को जैन संस्कार देकर जैन बनाना,इसका बहुत पुण्य लगता है। इसका जिक्र पंडित जी कई स्थानो पर करते थे। हमें अर्हम् योग शिविर, संस्कार शिविर, शिक्षा-रोजगार में सहयोग जिनालय निर्माण, सराक क्षेत्र के जिनालयों की वंदना, दिगंबर मुनिराजो से सराक बंधूओ को जोड़कर आदि विभिन्न तरीकों से अपने साधर्मिको को जैन धर्म की मूलधारा में सम्मिलित करना चाहिए।
एक बार जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से ‘वीर’ पत्रिका के प्रधान संपादक रवीन्द्र मालव ने साक्षात्कार मे प्रश्न किया कि “नए लोगों को जैन धर्म की परिधि में लाने उन्हें जैन धर्म अंगीकार कराने और जैन धर्मावलंबियों की संख्या बल बढ़ाने की ओर किसी का कोई ध्यान नहीं है| क्या किया जाए?” आचार्य श्री ने जो उत्तर दिया, वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है और समाज के बुद्धिजीवी, विद्वानों, साधुओं और नेताओं को चिंतन के लिये मजबूर कर देता है| उन्होंने उत्तर दिया कि “इतिहास साक्षी है एक समय ऐसा था जब अनेक जैन मुनि अक्सर यह संकल्प ले लेते थे कि वे इतने हजार या इतने सैकड़ा नए व्यक्तियों को जैन धर्म में दीक्षित करने के बाद ही आहार लेंगे और वे अक्षरशः इसका पालन भी करते थे । अनेक कथानक उपलब्ध हैं , जिनमें यह वर्णन आता है कि जैन मुनि-संघ के विहार के समय, उनकी प्रभावना से गांव के गांव जैन धर्म अंगीकार कर लेते थे । जैन बनाने की विधि शास्त्रों में दी है । शास्त्रों में उल्लेख है कि आचार्य जिनसेन ने कहा था कि जब आप लोग एक हजार नए जैनी बना देंगे, तभी आहार के लिए उठूंगा । जैन धर्म बहुत विशाल है , किन्तु हम संकीर्ण हो गए हैं । । हमारे धर्म की विशालता का कारण इसका विशाल दृष्टिकोण है । हम जब तक गुण और दोष नहीं बताते, तब तक व्यक्ति प्रभावित नहीं हो सकते । हमें संकीर्णता को तोड़ना होगा|”
एक अन्य प्रश्न “हम साधर्मी बन्धुओं का सहयोग किस प्रकार कर सकते हैं?” के उत्तर में आचार्य श्री ने कहा कि, “सर्वप्रथम हम यह विचारें कि क्या हम इसके योग्य हैं । हमारे यहां ‘आश्रय दान’ की बहुत महत्ता है| दुर्भाग्य से ‘आश्रय दान’ की प्रथा लुप्त या कमजोर हो रही है। हमारा इस ओर बहुत कम ध्यान है। समाज के जरूरतमंद और कमजोर लोगों को ‘आश्रय दान’ देने की प्रथा को सशक्त करने की आवश्यकता है। लाखों-करोड़ों रुपया विषयों और कषायों में बहा देंगे, पर किसी को आश्रय नहीं देंगे। साधर्मी के संरक्षण या उत्थान में एक पैसा भी खर्च नहीं करेंगे। शास्त्रों में कहा है, एक वृक्ष लगाना सौ पुत्रों को जन्म देने के समान है । वृक्ष के पास सैकड़ों – हजारों पथिक आएंगे और ऑक्सीजन ग्रहण करेंगे। पेड़ से सैकड़ों लोगों को छांह मिलती है, फल मिलते हैं। इसी प्रकार एक निराश्रित को आश्रय देने से, उसे जीवन में आगे बढ़ने में मदद करने से, सैकड़ों पुत्रों को जन्म देने से भी ज्यादा पुण्य का संचय या अर्जन होता है। किन्तु आज यह व्यवस्था दुर्लभ हो रही है। इस दिशा में चिंतन नहीं हो रहा। हम सोचें कि क्या हमारा समाज आज ‘आश्रय दान’ के लिए तैयार है, ‘विद्यादान’ के लिए तैयार है। समाज इसके लिए स्वयं को तैयार करे, बाकी रास्ते स्वयमेव खुल जाएंगे। आपको, समाज को, स्वयं ही नई दिशा और नया रास्ता दिखने लगेगा।
सराक लोग आज भी गरीबी का जीवन जी रहे हैं, पर जैन नियमों का पालन करते हैं। शाकाहारी, रात्रि-भोजन त्याग, गृहशुद्धि आदि का यह पूरा ख्याल रखते है, अब कई स्थानों पर नवीन दिगंबर जिनालयों का निर्माण व प्राचीन जिनालयों का जीर्णोद्धार भी हुआ है, साथ में महिलाओं की आजीविका हेतु सिलाई सेंटर, छात्रों के लिए पाठशाला, कोचिंग सेंटर आदि कुछ स्थानों पर चल रहे है पर यह उनकी संख्या के हिसाब से अपर्याप्त है, हमें भी साधर्मिक सराक भाईयों के उत्थान हेतु आगे आना चाहिए| अपने कारखानों में, जैन तीर्थ क्षेत्रों पर नौकरी देकर, सरकारी योजनाओँ का लाभ दिलवाकर, इनके लिए धार्मिक एवं लौकिक शिक्षा की व्यवस्था करकर आदि अनेको माध्यमों से हम मुख्यधारा में शामिल जैनों को चाहिए कि इन सराक भाइयों को भी वापस मुख्यधारा शामिल करने के लिए हर संभव प्रयास करें| परम मुमुक्षु प्रणम्यसागर मुनिराज के सानिध्य में हस्तिनापुर में लगने वाले अर्हम् योग शिविर के माध्यम से सराक भाइयो को परम उपकारी मुनि श्री १०८ प्रणम्यसागर मुनिराज से आशीर्वाद लेने एवं जैन समाज से जुड़ने का एक बार फिर से स्वर्णिम अवसर मिला है| इस अवसर का सराक भाई एवं जैन समाज दोनों ही भरपूर लाभ उठाएंगे, ऐसी मेरी मंगल भावना है|
विकास जैन मुजफ्फरनगर