परम पूज्य निर्यापक श्रमण मुनि पुंगव श्री 108 सुधासागर जी महाराज ने 15 फरवरी को बिजौलिया के पार्श्वनाथ तपोदय तीर्थक्षेत्र में प्रवचनों में कहा कि –
इस संसार में द्रव्यों में योग्यता विद्यमान है, वह शक्तिमान उपादान के आधीन चलती है। निमित्तों का दरकार नहीं करते। निमित्त के लिये आभार, अभिवादन, प्रसन्न करना पड़ता है। दूसरे वे महानुभाव होते हैं, उन्हें दरकार नहीं होती और निमित्त आभार मानता है कि उन्हें स्वीकार करें। दोनों में बहुत अंतर है। एक निमित्त ढूंढता है और दूसरे के पीछे निमित्त दौड़ते हैं कि सारे कार्य मैं करूंगा। वह उपादान देखता भी नहीं, तब वह चर्या भिक्षु चर्या कहलाती है।
साधु चर्या अपनी आहार चर्या के लिये मन में भी भाव नहीं लाता कि कोई श्रावक मेरे से खुश हो जाये और यह वस्तु उपलब्ध करा दे, सेवा करे। साधु वह उपादान शक्ति की साधना है, जिसमें वह स्वयं को इतना तपा देता है कि वह अयाचक कहलाता है। स्वाभिमान की इतनी पराकाष्ठा कि यदि मौत भी आये, तो याचक नहीं बनना बल्कि मौत सहर्ष गले लगा लेना और तो और मन से भी संप्रेक्षण नहीं करना ही, मोक्ष मार्ग शुरू होता है। मंत्र शक्ति भी होती है, ऋद्धियां भी कर सकता है, भाव लिंगी की बात तो दूर द्वय लिंगी साधु भी श्रुत का अध्ययन करते-करते 11 अंग और दसवें पूर्व पर आता है। इतनी ताकत होती है कि 1200 देवता खड़े हो जाते हैं कि हम आपकी सेवा में हैं आज्ञा दीजिये। अभी साधु मिथ्यादृष्टि है, सिर्फ बाहर से जैन साधु का भेष स्वीकार कर 28 मूलगुण हैं, कोई रत्नत्रय भी नहीं हैं, तो भाव लिंगी मुनि तो तीनों लोक को अपने वश में कर सकते हैं। लेकिन जो साधु अपनी शक्ति या साधना के बल पर श्रावक को भयभीत करता है, वह साधु हो ही नहीं सकता, डाकू से भी महाडाकू है और दुर्गति का पात्र है। जैन साधु को नियम लेना होता है कि स्वार्थ के लिये किसी को भयभीत, वश में भी नहीं करेंगे, यदि कोई भी मारने आ रहा हो तब भी जिनवाणी ने कहा कि मर जाना लेकिन मंत्र तक का उपयोग नहीं करना तभी मोक्ष मार्ग। जो-जो साधु कष्ट या अपमान सहन करता है, याचना नहीं करता तो समझ लेना वह ही शक्तिमान है। यहां तक वह प्रकृति को भी अनुकूल की भावना भी नहीं करते।
तभी 22 परिषहों को स्वीकार कर सच्चा साधु बनता है। देने वाले धन्य होवे तो वह दान की कोटी में आता है और यदि लेने वाला धन्य होवे, वह भिखारी की कोटी में आता है। भिखारी को रोटी खिलाते हो तो भिखारी खुश होता है और तुम उसे आगे बढ़ने को कह देते हो और यदि साधु को भोजन देते हो तो देने वाला खुश होता है, आहोभाग्य मानता है। आज भगवान के आहार के बेला का समय है वह लेंगे, तो सही पर याचना नहीं करते। सिद्धालय में संबंधों की जरूरत नहीं पड़ती। बिना संबंधों के जीव शुद्ध उपादान में जीता है। संसारी जिससे संबंध बनाता है उसके अनुसार चलना पड़ता है। पर का सहारा साधु को भी लेना पड़ेगा – शरीर, प्राण इत्यादि सब चाहिये तो उसकी आवश्यकता की पूर्ति करनी पड़ेगा, क्योंकि वह तुम्हारे लिये उपकारी हैं। संसारी जीवन में जैसे मां-बाप उपकारी हैं, तो तुम उनके अनुकूल चलना, उन्हें अपने अनुसार मत चलाना।
जिस घर में जितनी पीढ़ी रहती है, उस घर में बच्चा जन्म लेता है तो समझना की वह बहुत पुण्यशाली होता है और वह अकाल नहीं मरता। जिनवाणी भी यदि उपकारी है तो उसके अनुकूल चलना। साधु भी उपकारी को नहीं छोड़ सकता। ऋषभदेव जब चले, तो सब लोग सब चीजें देने को लेकर खड़े हो जाते थे, लेकिन प्रतिदिन आते और चले जाते। आहार को नहीं उठे तो साधु को दोष लगता है, और उठने के बाद नवधा भक्ति से नहीं मिलता तो मरण का दोष नहीं लगता। जिनमुद्रा में खड्गासन में मुद्रा में आहार लेना। निमित्तों के उपकार के अनुकूल चलना, लेकिन विधिवत करना और स्वाभिमान के साथ करना। ऋषभदेव भगवान के अंतराय कर्म का उदय नहीं था, वह तो लोगों का दानातंराय कर्म का उदय था। पूर्व भव के संस्कार फलते हैं, जैसे राजा सोम और श्रेयांस ने नवधाभक्ति से उन्हें आहार दिया।
संकलन: भूपेश जैन