रत्नों का पारखी जौहरी रत्नों को देखकर उनकी गुणवत्ता को देखकर उनके मूल्य का आकलन कर लेता है। वैसे ही सच्चे गुरु भी शिष्यों की पहचान उनने हाव-भाव, उनकी विनय, वचन व्यवहार आदि के माध्यम से कर लेते हैं। ये चेतन रत्नों की पहचान करने वाले अनुपम जौहरी होते हैं। हमारे सच्चे गुरु शिष्य की शारीरिक चेष्टाओं और चेहरे के भावों को देखकर अंतस् के वैराग्य की परिणति को जान लेते हैं। इस प्रकार अपना शिष्यत्व स्वीकार करने वाले शिष्य के उपयुक्त गुणों को पहचानने में परम पूज्य आचार्यश्री की दृष्टि अदभुत है। एक प्रेरक प्रसंग।
एक दिन दोपहर की सामायिक को आचार्यश्री जी आवर्त करके बैठे ही थे कि बंडा नगर के एक ब्रह्मचारी जी ने आकर आचार्यश्री के चरण कमलों में श्रीफल चढ़ाया और थोड़े हँसते हुए कहा- ‘आचार्यश्री यह श्रीफल दीक्षा के लिए है। आप हमें मुनि दीक्षा प्रदान करें।’ आचार्यश्री ने भी हँसते हुए कहा- ‘अभी स्वीकार नहीं है। अभी यह श्रीफल ठीक से नहीं चढ़ रहा है। हँसते हुए दीक्षा का निवेदन नहीं किया जाता, गंभीरता के साथ होता है।’
ब्रह्मचारी जी कुछ न कह सके, कुछ समय तक चुप रहने के बाद बोले- ‘आचार्यश्री जी! और कैसे निवेदन किया जाता है, प्रसन्नता के साथ ही तो किया जाता है।’ आचार्यश्री ने कहा- ‘ठीक है, प्रसन्नता के साथ, गंभीरता होना चाहिए। दीक्षार्थी कैसा होता है? दीक्षा के भाव अंदर वैराग्य से भरकर आते हैं, और अभी तुम दूसरों के कहने से यहाँ आकर यह नारियल चढ़ा रहे हो इसलिए कहा अभी स्वीकार नहीं है। ब्रह्मचारीजी- ‘नहीं आचार्यश्री जी! दूसरों के कहने से नहीं, स्वप्रेरणा से चढ़ा रहा हूँ।’ आचार्यश्री- ‘ठीक है। मैं समझ रहा हूँ।’ बाद में ज्ञात हुआ कुछ महाराजों की प्रेरणा से ब्रह्मचारी जी श्रीफल चढ़ा रहे थे।
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