आवां अतिशय तीर्थ पर अदालत ने लगाया 5 लाख जुर्माना ॰ सुदर्शनोदय कमेटी नहीं दे पाई प्रमाणित दस्तावेज

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॰ अदालत का निर्देश – वन विभाग की जमीन को सरकार अतिक्रमण मुक्त करायें
22 सितंबर 2024/ अश्विन शुक्ल चतुर्थी पंचमी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/ शरद जैन /
एक बार फिर अपनी कमजोर व अपर्याप्त दस्तावेजों के चलते एक तीर्थ को अदालत में शर्मसार होना पड़ा है। वर्तमान में कई तीर्थों पर इस तरह के विवाद चल रहे हैं।

05 सितंबर 2024 को राजस्थान हाईकोर्ट की जयपुर बैंच ने टोंक जिले में जयपुर-कोटा राष्ट्रीय राजमार्ग पर टोंक और देवली शहरों केबीच हाइवे से 15 किमी दूरी पर स्थित आवां गांव के 900 वर्ष प्राचीन शांतिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर, जिसका 2008 में नाम सुदर्शनोदय तीर्थ घोषित किया, उसकी याचिका को खारिज कर दिया। कोर्ट की बेंच ने इस तीर्थ पर 5 लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया है।

अदालत ने तीर्थ प्रबंधन से पूछा कि पहाड़ पर किसकी अनुमति से खुदाई की गई, इसका तीर्थ प्रबंधन कमेटी कोई पुख्ता प्रमाणित दस्तावेज / जवाब नहीं दे पाई। तीर्थ प्रबंधन कमेटी ने कहा कि जिस पहाड़ पर तीर्थस्थल स्थित है, वहीं से खुदाई में तीर्थंकर पार्श्वनाथ और तीर्थंकर महावीर स्वामी की प्राचीन प्रतिमायें प्राप्त हुई, जो लगभग 200-300 साल पुरानी हैं। ये प्रतिमायें पवित्र और अतिशयकारी हैं, इनको सुरक्षित करने के लिए निर्माण आवश्यक था। कमेटी का कहना था कि यह विवादित खसरा की जमीन, वन विभाग की नहीं है, राज्य सरकार ने इसे वन भूमि घोषित करने के लिए कोई अधिसूचना जारी नहीं की। वहीं कमेटी ने इस भूमि के आवंटन के लिये वन विभाग और जिला कलेक्टर के समक्ष आवेदन किया हुआ है।

न्यायमूर्ति पंकज भण्डारी और न्यायमूर्ति प्रवीर भटनागर की खण्डपीठ ने निर्णय सुनाते हुये कहा कि धार्मिक भावनाओं के आधार पर सरकारी, विशेष रूप से वन भूमि पर अतिक्रमण की अनुमति नहीं दी जा सकती। उन्होंने यह भी कहा कि राजस्व रिकार्ड के अनुसार यह विवादित खसरा वन विभाग के नाम रिकार्ड में दर्ज है और यह पहाड़ का हिस्सा है।
प्रबंधन समिति ने मूर्तियों की प्राप्ति के दावे के कोई पुख्ता प्रमाण प्रस्तुत नहीं किये और इसी पर अदालत ने कहा कि तीर्थ की ओर से मूर्तियों की प्राप्ति का दावा पर्याप्त प्रमाणों के बिना किया गया था। अदालत ने राज्य सरकार को निर्देश दिये कि वह वन विभाग की जमीन को अतिक्रमण मुक्त करायें।

अदालत का यह फैसला गांव के शंकर लाल द्वारा दायर जनहित याचिका और तीर्थ प्रबंधन की रिट याचिका के आधार पर दिया।
यह वही तीर्थ है, जिसका जून 2008 में निर्यापक श्रमण श्री सुधा सागरजी के सान्निध्य में भव्य पंचकल्याणक हुआ और उसी समय इस तीर्थ का नाम भी श्री शांतिनाथ दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र सुदर्शनोदय, आवां घोषित किया गया। वैसे इस मंदिर का निर्माण वि.स. 1223 में किया गया, आज से 777 वर्ष पहले। फिर वि.सं.1593 में भट्टारक श्री धर्मचंद जी द्वारा चार फीट वाली शांतिनाथ जी की पदमासन प्रतिमा का पंचकल्याणक किया गया। कहते हैं उस समय भोजन के उपयोग में लाई गई मिर्च के डण्ठल का वजन ही 29 क्विंटल था, जो स्पष्ट कर रहा था कि उस पंचकल्याणक में लाखों श्रावक आये थे। उस पंचकल्याणक को तत्कालीन शासक सूर्यसेन के संरक्षण में किया गया था।

इस बारे में पूरी जानकारी चैनल महालक्ष्मी के एपिसोड नं. 2839 में देख सकते हैं।

चैनल महालक्ष्मी टिप्पणी : वर्तमान में हमारी प्रबंधन समितियां, तीर्थ / मंदिरों की सुरक्षा के प्रति गंभीर नहीं दिखती। कहीं बाऊण्ड्री नहीं होती, तो कहीं सीसीटीवी कैमरों की व्यवस्था नहीं, अगर होगी तो बंद पड़े होंगे। मंदिर के दस्तावेजों का डिजीटल रिकॉर्ड, सरकारी कागजों में दर्ज होना तो देखा ही नहीं जाता। इस केस में भी समिति द्वारा प्रतिमाओं के निकलने के पुख्ता प्रमाण अदालत में प्रस्तुत नहीं कर सके।
वैसे वन विभाग की जमीन पर देश में कई जगह कई धार्मिक स्थल बनाये गये हैं, पर संभवत: उनको शासन- प्रशासन की शह मिली होती है और वहां अतिक्रमण जैसी बात नहीं होती। आज अल्पसंख्यक जैन समाज न अपनी पहुंच बना पा रहा है, ना ही अपने दस्तावेजों को पुख्ता कर रहा है। इन सबके लिये दोषी कौन? जिम्मेदारी स्पष्ट होनी चाहिए।