गुरु चयन कठोर परीक्षा से, फिर पूर्ण समर्पण-श्रद्धा से – इस गुरु पूर्णिमा से बस एक नई शुरूआत, पूर्ण समर्पण – श्रद्धा के साथ

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19 जुलाई 2024// आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी //चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/शरद जैन /
21 जुलाई गुरु दिवस है, आषाढ़ शुक्ल की आखिरी रात, जब गगन में चांद भी पूरा निखर कर चांदनी बिखेरता है, तो वह इसलिये करता है, कि उससे पूर्व दिन को गुरु के प्रति श्रद्धा-भक्ति के लिये मनाते हैं और वह पूर्णिमा भी इस सौभाग्य से गुरु पूर्णिमा के नाम सुविख्यात हो जाती है।

इस की गुरु पूर्णिमा तो और खास है। औसतन सात सालों में एक बार अवसर ऐसा अब आने लगा है, जब सामाजिक चातुर्मास स्थापनायें भी 70 से 80 फीसदी गुरु पूर्णिमा को हो रही हैं, उसका बड़ा कारण है ‘रविवार’ – सण्डे, हालीडे, सुपर डे, और तीनों का मेल हो रहा है इस बार 21 जुलाई को। जब संत चातुर्मास की स्थापनायें अपनी विधि-संकल्प-सीमा बंधन तो चतुर्दशी को कर लेंगे, पर समाज के बीच दिखावट, प्रदर्शन, शोर-शराबा, बैंड-नगाड़ा, लोगों के लिये पार्टी-पिकनिक, कलशों की नीलामी, संतों के पाद प्रक्षालन व शास्त्र भेंट-पूजा आदि को नोट छापने की मशीन, सब गुरु पूर्णिमा को वर्षायोग स्थापना के रूप में होगा। शब्दों का चयन थोड़ा कड़वा जरूर है, पर सत्य के ऊपर चापलूसी की चासनी नहीं लपेटी। इसी एक दिन में 200-300 करोड़ रुपये स्वाहा हो जाता है। मिलता क्या है, यह अपने हृदय में झांककर पूछें कि आप क्या लेकर आये।

खैर, अभी तो सान्ध्य महालक्ष्मी का केन्द्र बिन्दु गुरू पूर्णिमा है। गुरु का उपकार दिवस, गुरु प्रकाश दिवस, गुरु धन्य दिवस, मार्ग प्रकाश का दिवस, पर गुरु कौन है, गुरु वो ही नहीं हो सकता, जिसके पीछे भीड़ चलती हो, भीड़ में भेड़ मत बनना। चुनना और हर सतह पर परखना।

जीवन में तीन गुरु – पहले गुरु कर्मों से
वैसे हर के जीवन में तीन गुरु आते हैं। जी हां, एक नहीं तीन, अलग-अलग चरणों में। पहला मां-बाप, जन्म के साथ, वे कौन होते हैं? वे आपको पिछले कर्मों के फल से मिलते हैं, तिर्यंच भी हो सकते हैं और कर्म ऐसे हों कि जन्म समूर्छन से मिले, तो मां-बाप की भी जरूरत नहीं। खैर, इस बार तो संचित पुण्य कर्मों से आपको मनुष्य रूपी उत्तम जन्म में उत्तम कुल मिला है, कुछ तो यह भी कहते हैं उच्च गौत्र मिला है। ये पहले गुरु आपको पूर्व संचित कर्मों के फल से मिलते हैं। वे ही हमें इस संसार की पहचान कराते हैं, बिल्कुल कच्ची मिट्टी, जिसमें अगर वह संस्कार रूपी जल संचित करते रहे, तो उस मिट्टी का कलश बन जाता है। भगवंतों के चरणों तक पहुंचने का सौभाग्य प्राप्त कर लेता है, वरना पैरों की ठोकर मिट्टी के रोड़े तो हर किसी ने देखे हैं, पैर के आगे आया, और मार दी लात, कितनी दूर जाकर गिरा, बस यही देखकर लोग मजा लेते हैं। हां, यह चिंतन सान्ध्य महालक्ष्मी का है, जरूरी नहीं कि आपकी सोच भी यही करे।

दूसरे गुरु – मां-बाप से
धीरे-धीरे हम बड़े होते हैं, बोलना-चालना और थोड़ा समझना शुरू कर देते हैं, तो पहले गुरु यानि मां-बाप, हमें दूसरे गुरु यानि अध्यापक को थमा देते हैं। लौकिक शिक्षा, संसार में जीने की कला, सब यहां अलग-अलग गुरुओं से सीखते हैं, माना कि कॉस-थीटा, साइन-थीटा का गणित, हमारे पूर्वजों कौन रूपी इतिहास, उस देश की फलाना राजधानी रूपी भूगोल, मुर्गी का अंडा कैसे बना रूपी जीव विज्ञान, हाइड्रोजन-आॅक्सीजन से बनते पानी का रसायन शास्त्र, नीचे गिरते सेब-न्यूटन लॉ की भौतिकी-सबकुछ 12 से 18 साल पढ़ते हैं, जिसका असली जीवन में शायद कोई खास उपयोग नहीं होता, पर जीवन का यह पड़ाव उन गुरुओं के बीच गुजरता है और ये गुरु आपको मां-बाप चयन करके देते हैं।

अब तक आप परिपक्व हो चुके होते हैं, मां-बाप के कंधों के बराबर और यहां तक आते-आते अधिकांश अपने गुरु के प्रति उत्तरदायित्व कर्तव्यों को भूल जाते हैं, जैसे उन्होंने पैदा किया, दूसरे ने पढ़ाया, तो उन पर खुद ने मानो अहसान किया। यहां गलती उनसे ज्यादा पहले गुरु की भी कही जाये, तो गलत नहीं होगा, जैसे संस्कार दोगे, वैसा ही रूप बनेगा। जैसा बोआ, वही काटना होता है। और जब आम की बजाय सामने नीम मिलता है, तब समझ आता है, कि बोया क्या था, पर अब कुछ नहीं हो पाता।

तीसरे गुरु – जो बनाये आपकी दिशा और सुधरे दशा
पर गुरु पूर्णिमा का सीधा संबंध तीसरे गुरु से है, आध्यात्मिक गुरु से। इनका चयन हम स्वयं करते हैं। सहयोगी कोई भी हो सकता है, पर फाइनल चुनाव हम स्वयं करते हैं। इस चुनाव में मां-बाप-दोस्त भी कारण बन सकते हैं, भीड़ भाड़ – लौकिकता भी कारण बन सकती है, तो किसी का रूप – स्वरूप – आचरण भी कारण बन सकता है। तीसरे गुरु में वह अपने दोस्त, मां-बाप – सलाहकार से भगवान तक सुबकुछ ढूंढता है और मानता भी है। सान्ध्य महालक्ष्मी यही कहता है कि पहले दो चरणों में आये गुरु से महत्वपूर्ण और पूरे जीवन का आधार यही तीसरे गुरु बनते हैं। पहले दो गुरु के चयन में आप के वर्तमान का योगदान लगभग नगण्य होता है।

गुरु की कठोर परीक्षा
तो कौन हो गुरु (तीसरे और जीवनपथ प्रदर्शक), इसके लिये यूं हीं चुनाव मत करें, गुरु कोई सूटबूट नहीं कि समय के साथ बदल लिया जाये, कोई खिलौना नहीं कि, पसंद नहीं आये, तो नया ले लिया जाये, बदल लिया जाये, पर कुछ आज भी ऐसा ही करते हैं। इन गुरु के चयन को कड़ी परीक्षा में उतारे। निर्यापक श्रमण श्री सुधा सागरजी भी कहते हैं कि गुरु की परीक्षा जरूर करना। हां, जरूरी है परीक्षा, मापदण्ड आप तय कर सकते हैं, आप गुरु में क्या देखते हैं? जैसे जौहरी की दुकान पर आभूषण खरीदने जाते हो, तो ठोक बजाकर खरीदते हो, 24 टंच खरा ही चुनते हो, सोने के नाम पर पीतल स्वीकार्य नहीं होता। वैसे आजकल आर्टिफीशियल ज्वैलरी का जमाना चल निकला है, ऐसे में हम भी असली की बजाय नकली, सारी कम बेहतरीन की बजाय बेहतर में ही संतुष्ट हो जाते हैं। परीक्षा लो और सौ में से नम्बर दो, जितनी ज्यादा परख के चयन करोगे, उतना ही जीवन में सफलता की सीढ़ी चढ़ सकोगे। हां, करो परीक्षा और फिर करो चयन, गुरु बार-बार नहीं बदले जाते और सोने के नाम पर पीतल रूपी को गुरू नहीं स्वीकार करना, इस बात की गांठ बांध लेना।

एक बार परीक्षा में चुना, आपके पूर्ण समर्पण की बारी
जब नाव में बैठते हैं, तब नाविक से यह नहीं कहते, इधर मुड़ना, उधर चलना, बस जहां वो ले जाये। आप नाव में बैठने से पहले सब पूछताछ कर सकते हैं। मॉडर्न जमाने में हवाई यात्रा, एक बार हवाई जहाज में बैठ गये, फिर पायलट के अनुसार करते हो। सीट बेल्ट बांधो, कुर्सी सीधी करो, अब उठो, जैसा वो कहे, वैसा करते पहुंच जाते हैं, मंजिल पर। बस इसी तरह गुरु के प्रति करना है।
एक बार चुन लिया, अब अपने को किसी किंतु-परंतु में नहीं पड़ना। कोई लाख कहे, पर नहीं डिगना। अपना पूरा समर्पण, पूर्ण श्रद्धा। अब अपनी सारी खोपड़ी का ज्ञान, सब उनके चरणों में। खाली होकर जाना है, झोली भर लौटेंगे। मंजिल पर भी पहुंचोगे। आजकल हम अपना अधूरा ज्ञान, सांसारिक बातें, इनमें ही अपने गुरु को उलझाते हैं, इधर-उधर की बातों में उनको भटकाते हैं। हम गुरु को गुरु समझते ही कहां है, खास हैं तो याराना समझते हैं, वो आदर-सम्मान दिया ही कब। यही फर्क है, जब कुछ नहीं पाते हैं। गुरु भक्ति श्रद्धा का विषय है, समर्पण का है। गलती हो तो तुरंत बताओ, इलाज वहीं बतायेंगे। जैसे छोटा बच्चा मां-बाप की अंगुली पकड़कर चलता है, बस ऐसे ही उनके चरण पकड़ पथ पर बढ़ता है। इस गुरु पूर्णिमा से बस एक नई शुरूआत, पूर्ण समर्पण – श्रद्धा के साथ।