25 हजार संतों की जब उठे एक साथ आवाज – तीर्थों पर हो उनके चातुर्मास, अतिक्रमणकारी जाएंगे भाग, सत्ता प्रशासन भी जाएगा जाग… लेकिन बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे

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17 जुलाई 2024// आषाढ़ शुक्ल एकादिशि//चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/शरद जैन /
दिगंबर – श्वेताम्बर की दो धाराओं के चक्कर से दूर हटकर अगर सिर्फ जैन चश्मे से देखें, तो आज यह कहना गलत नहीं होगा, दो बंदरों की लड़ाई का पूरा फायदा तीसरा यानि बिल्ली उठाने में लगी है। हाथ की अलग-अलग अंगुली पर लगातार हमले हो रहे हैं, कमजोर पड़ रहे हैं, अगर वही पांचों अंगुलियां दिगम्बर-सोनगढ़ी-मूर्तिपूजक – तेरापंथ – स्थानकवासी एक हो जायें, तो मुट्ठी बन जाये और सामने वाले को मुहंतोड़ जवाब देना, फिर मुश्किल नहीं।

आज अहिंसा का पाठ पढ़ते-पढ़ते हम अपनी क्षत्रियता के कुल को भूले बैठे, कायर बन गये है। हां, शेर को शिकार करने को मना किया है, सांप को काटने को मना किया है। अगर दोनों ही यह सोचकर जमीन पर पड़ जायें, तो निश्चित ही गीदड़, शेर का शिकार कर लेंगे, इंसानों की लाठी सांप को खत्म कर देगी, तो फिर क्या सिंह और सांप को शिकार करना या काटना नहीं छोड़ना चाहिए। आदि से महावीर की अहिंसा न मारना सिखाती है और न ही सबकुछ छोड़कर यूं ही चुप रहना बतलाती है। शेर को दहाड़ना तो होगा, सांप को फुंकारना भी होगा। यही कहते हैं आचार्य श्री सुनील सागरजी – जो पड़ गया, वो मर गया, जो खड़ा रहता है, जूंझता है, वही जीतता है।

चाहे वो खण्डगिरि, गिरनारजी, पालीताणा, रनकपुर, केसरियाजी, मंदारगिरि, जैसे अनेकों तीर्थों पर आंखें गड़ा रखी हैं, कारण, जैन ही शिरपुर, शिखरजी, केसरियाजी, आदि पर एक-दूसरे के सामने खड़े हैं।
आज पांचों तीर्थंकर निर्वाण भूमियां खतरे के निशान पर हैं- कैलाश पर्वत – जैनों की पहचान ही खत्म कर दी, गिरनार – पांचवीं टोंक के इतिहास को नया कर, पिछले को गौण कर दिया। पावापुरी – दोनों भाइयों में गांठ बंधी है, मंदारगिरि – मोक्षस्थली के नीचे 10७12 के कमरे के लिये 200 करोड़ का फंड दिया जा रहा है। मुख्य दरवाजा बंद हो चुका है। शिखरजी – शाश्वत अनादि निधन भूमि – दो भाइयों की लड़ाई में तीसरा मजा ले रहा है, कहीं दोनों देखते रहे, तीसरे की लाटरी खुल जाये। खण्डगिरि – बारह भुजा पर जबरन कब्जा। सब दिखता है, पूरा देश देखता है, पर कोई साथ नहीं देता।

वर्तमान में कई तीर्थों पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं, कारण हमारी किसी भी श्रेणी में एकता नहीं है, न ही नेतृत्व है। एक समय पूरे देश में दिगम्बरों की तूती बोलती थी। संतों में आचार्य श्री विद्यानंद जी और श्रावकों में साहू अशोक जैन जी। पर दोनों के जाने के बाद हम बिखर गये। बरगद की अलग-अलग शाखा पकड़, अपनी शाखा को ही बरगद मानने लगे। जिनवाणी का पन्ना-पन्ना पकड़, अपने ही पन्ने को जिनवाणी समझ लिया है।

अगर सभी संत ठान लें, कि हम सबको दस दिन कोई कथा या विधान या महोत्सव नहीं कराना, सिर्फ गिरनार पर ही बोलना है, समाज को आवाज देनी है। सभी विद्वान 3-4 लेख लगातार गिरनार की स्थिति और इतिहास पर लिखें, श्रेष्ठी जन केवल गिरनार पर ही बात करें, तो वो दिन दूर नहीं, जब सत्ता हो या प्रशासन, सबकी नजर उठेगी, कुछ गलत को रोका जा सकेगा। पर ऐसा करे क्यों? हमें गिरनार से क्या मतलब? हमारा तो पंचकल्याणक बढ़िया होना चाहिये, मेरी जयंती जोर-शोर से मनाई जाए, मेरे गुरु की मूर्ति हर जगह लगे और कुछ ऊंचे संत हैं, तो मेरा एक विशाल धाम हो, बस यही आकर पूर्ण विराम लग जाता है। सामाजिक नहीं, स्वयं के प्रोजेक्ट जरूरी हैं, अपना नाम हो, पत्थर लगे। आज समाज कल्याण से ज्यादा इस तरह के ‘आत्म कल्याण’ पर ज्यादा ध्यान रहता है।

पांच वर्ष चातुर्मास केवल तीर्थों पर हो
निश्चित ही उनकी काया पलट हो जाएगी

इसी के साथ सभी संत और समाज सामूहिक रूप से संकल्प कर लें कि आगामी पांच वर्षों तक सभी संत तीर्थों पर चातुर्मास करेंगे, जो प्राचीन हैं, संरक्षण – जीर्णोद्धार की जरूरत है, जहां समाज नहीं है। सवाल करेंगे, जब समाज नहीं तो चातुर्मास कैसे? पर जो पहुंच वाले, नाम वाले साधु हैं, उनके तीर्थों पर तो क्या, जंगल में भी मंगल हो जाता है। हर चातुर्मास में एक से 50 करोड़ का लेनदेन और कहीं तो इससे भी ज्यादा। वर्तमान में वर्षायोग ही 2000 करोड़ का कारोबार बन गया है, जिसका उपयोग कम, दुरुपयोग ज्यादा कर रहे हैं हम।

इस बारे में सान्ध्य महालक्ष्मी ने किशनगढ़ में आचार्य श्री सुनील सागरजी से चर्चा भी की। उन्होंने कहा कि इस पर मैंने भी बहुत बोला है। आचार्य महावीर कीर्ति जी अक्सर तीर्थों पर ही चातुर्मास करते थे। बाद में अनेक साधक आचार्य श्री विद्या सागरजी, आचार्य सन्मति सागरजी ने बहुत सारे चातुर्मास तीर्थों पर ही किये हैं। तो यह जरूरी है कि जो सक्षम साधु हैं, वे तीर्थों पर ही चातुर्मास करें। वहां के माहौल को समझें, वहां के समाज को जगाएं और वहां रहने-बैठने से तीर्थों की सुरक्षा अपने आप होती है।

क्यों नहीं, निर्णय लिया जाये कि आगामी 5 वर्ष हर संत केवल तीर्थों पर ही वर्षायोग करेंगे।
हर को योगदान देना होगा। मेरे से क्या होगा, मेरा तो अपना ही प्रोजेक्ट चल रहा है। ऐसे विचारों को विराम देना होगा। अगर तीर्थ बचेंगे तो संस्कृति बचेगी, संस्कृति बचेगी तो धर्म बचेगा। वर्ना यह मत सोचना 18450 साल यूं ही धर्म चलता रहेगा। नहीं, जब चौथे काल में धर्म का ह्रास बीच के समय में हो सकता है, तो पंचम काल में क्यों नहीं?