लालकिले की प्राचीर का शील किसने दिया चीर! जिम्मेदार कौन ? किसान, पुलिस, प्रशासन या केन्द्र सरकार

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लालकिले की प्राचीर का शील किसने दिया चीर!
जिम्मेदार कौन ? किसान, पुलिस, प्रशासन या केन्द्र सरकार

जो पिछले 71 बरसों में नहीं हुआ, वो 72वें वर्ष में हो गया। आज तक ऐसा नहीं हुआ और भावना भायें कि ऐसा आगे कभी ना हो। किसानों को उलझाते, लम्बी लड़ाई में हराने का सपना संजो रही केन्द्र सरकार ने बिछाई शतरंजी बिसात पर अपना हर मोहरा चलने की कोशिश की है, पर चाहे अदालती दरवाजा हो, पुलिसिया ताकत हो, या फिर साम-दाम-दण्ड भेद की नीति हो, वह अन्नदाता के बुलंद इरादों को नहीं डगमगा पाया। परन्तु 26 जनवरी को जब राजपथ पर राष्ट्र की शक्ति, संस्कृति की अनमोल विरासतों का दमखम दिखाया जा रहा था, तब दिल्ली के तीन कोनों से वो शुरूआत हुई, जिसकी देश ने उम्मीद नहीं की होगी। 1984 के बाद ऐसी अराजकता दिल्ली में आज तक नहीं देखी गई। 06 दिसंबर 1992 को जैसी असहाय पुलिस अयोध्या में थी, वैसी ही दिल्ली में दिखी।

गाजीपुर से तोड़फोड़ शुरू हुई, बैरिकेड खिलौनों की तरह मसल दिये। सीमेंट के बड़े पत्थर जो क्रेनों से जैसे बीती रात पुलिस ने लगाये थे, उन्हीं तरह की मशीनों से उन्हें खदेड़ दिया। डीटीसी की अवरोधक बनी बसों को खिलौनों की तरह हटा दिया। बढ़ते हजारों ट्रेक्टरों पर लाखों का कारवां बढ़ने लगा और 62 दिनों से सीमाओं की लक्ष्मण रेखा के पार खड़ा ‘किसान’ सीमा के भीतर आते ही, नेताओं के बंधन से मुक्त हो गया। हर समूह में गरम व नरम दल होता है। कपकपाती ठण्ड में जैसे ही सूरज ने तपन दी, वह अपनी सीमायें तोड़ने को आतुर हो गया। एक दहाड़ते ट्रेक्टर ने बेरिकेड तोड़ने की कोशिश की तो, ट्रेक्टर पलट गया और मौके पर ही किसान की मौत हो गई। अब तक अनुशासनात्मक आंदोलन, पहली बार सीधी राह से भटक गया। आईटीओ पर जैसे ताकत का फैसला होने लगा, ठीक दिल्ली पुलिस के पुराने कार्यालय के सामने। यहां महसूस हुआ कि आंदोलन के इस धरातल पर कुछ अराजकतत्व अपने अलग मंसूबे लेकर शामिल हो चुके हैं, और उनकी ‘बू’ पुलिस को पहले ही मिल चुकी थी।
आईपी मार्ग कबड्डी का मैदान बन गया। पहले ट्रेक्टरों के साथ कथित किसान बढ़े, पुलिस ने आसूं गैस के गोलों से फिर खदेड़ना शुरू किया, ट्रेक्टरों को छोड़10 कदम पीछे हट गये, पर यह चार गुनी ताकत से लौटने की मानो एक चाल थी। गरम खून के दो ट्रेक्टर आईपी मार्ग पर वर्दीधारियों को खदेड़ने-रौंदने के लिये चक्कर लगाने लगे और बस इस कदम के आगे पुलिस के बंधे हाथ थम गये, एक साइड खड़े हो गये और अगले चंद मिनट में सड़क के दोनों ओर ट्रेक्टरों की दौड़ शुरू हो गई। आईटीओ, से कुछ इंडिया गेट की ओर बढ़े और शेष लालकिले की ओर। इनमें से अधिकांश उन भेड़ों की तरह थे, जो आगे वाले को देख पीछे-पीछे चल देते हैं।

और फिर असहाय पुलिस के सामने देश की ऐतिहासिक ‘नाक’ लालकिले की प्राचीर पर जो हुआ, उसने भारत माता का मस्तक भी मानो झुका दिया। एक पुलिसवाले को तलवार से लहूलुहान कर दिया और अनेकों पुलिस वाले लालकिले की खाई में कूदते नजर आये, जान बचाने के लिए। तब भारत माता के ही लाल, प्राचीर पर चढ़ चुके थे, जिस पर चढ़, मस्तक पर तिरंगा ‘सेहरा’ बांधने, फहराने का अधिकार केवल प्रधानमंत्री को दिया गया है। रौंद दिया गया मानो संविधान, प्राचीर की अस्मत चीर-चीर कर दी। राष्ट्र धर्म को कुचला गया, एक धर्म के झण्डे को लगा दिया गया। पूरा विश्व इस लुटती इज्जत को देख रहा था। पर घर के लाल ही, देश को अन्न देने वाला ‘दाता’ ही अनुशासन की लक्ष्मण रेखा को पार कर बेलगाम होकर अपनी ही मां की इज्जत तार-तार कर रहा था। चाहे अनजाने में हो, पर यह गंभीर अपराध है यह, जो क्षम्य नहीं।
पर क्या वही कसूरवार है, और कोई नहीं। क्या सरकारी तन्त्र दूध का धुला है, जो पिछले दो माह से उसकी सहनशीलता को तौल रहा है। क्या अदालत का ढीला व अनसुलझा रवैया, पुलिस द्वारा उसकी जिद पर 15 दिन तक चलाया गया नाटक, अराजक तत्वों पर असफल गुप्तचर व्यवस्था, मौका परस्त विपक्ष, किसानों के नेताओं में नेतृत्व की कुशलता में कमी, क्या इसका कारण नहीं।
हां, इस अन्नदाता के गेहूं में कुछ कंकड़ भी थे, जिन्होंने रंग दिखाया और अनुशासन की लक्ष्मण रेखा पार होते ही, अपना शर्मनाक रूप दिखा दिया। दोषी कौन? इसके लिये सभी को अपने-अपने गिरेबान में झांकना होगा, वर्ना दूसरे पर कीचड़ उछालना तो हमें बखूबी आता है।
– शरद जैन-