॰ आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी ने 30 पिच्छी के साथ देखा,बदलते जैन तीर्थों का एक अध्याय
॰ उकेरी तीर्थंकर प्रतिमायें, कहे कि कभी यह था जैन मंदिर
16 मई 2024/ बैसाख शुक्ल नवमी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/शरद जैन /
मंगलवार 09 मई को प्रात: 6.30 बजे 30 पिच्छी के साथ आचार्य श्री विशुद्ध सागरजी ने जब कोल्हापुर के महालक्ष्मी मंदिर में प्रवेश किया, तब वहां 300 से ज्यादा लोग दर्शन के लिये कतार में खड़े थे। आज जिसे महालक्ष्मी का मंदिर और स्थानीय लोगों में ‘अम्बाबाई’ के नाम से लोकप्रिय है, वह कभी जैन मंदिर रहा होगा।
इसके पूर्वी द्वार से प्रवेश करें, तो द्वार के पास ही 6 उकेरी पद्मासन-खड्गासन तीर्थंकर प्रतिमायें दिख जाती हैं। आचार्य श्री विशुद्ध सागरजी ने उनके चरण स्पर्श कर, कुछ समय ध्यान लगाया। पूर्व में तपस्वी सम्राट श्री सन्मति सागर जी ससंघ भी इस मंदिर में जैन तीर्थंकर प्रतिमाओं के दर्शन कर चुके हैं। सम्भवत: इस बार 30 पिच्छी का संघ का दर्शन, अब तक सबसे बड़े दिगंबर संघ के प्रवेश का रिकार्ड बन गया और एक बार फिर स्पष्ट हो गया कि प्रतिमायें कितनी भी हट जायें, पर जो दिवारों, शिखर पर उकेरी हुई तीर्थंकर प्रतिमायें हैं, वो आज भी संकेत करती हैं कि आज का महालक्ष्मी मंदिर, पहले पद्मालय जिनालय था, यानि देवी पद्मावती का मंदिर।
शेषयायी विष्णु, पूर्वी द्वार के करीब, ऊपर एक अष्टकोणीय संरचना है, उसमें 60 तीर्थंकरों की नक्काशी का पूरा पैनल आज भी जीवंत प्रमाण है। कहा जाता है कि 109 र्इं में जब यहां जंगल को काटा गया, तब कर्णदेव को यह मंदिर दिखा, फिर 8वीं सदी तक यह रहा, तब नवीं सदी में गंडावाडिक्स राजा ने इस मंदिर का विस्तार किया। 1178 ई. में राजा टोलम ने महाद्वार का निर्माण कराया।
पर इतिहासकार पॉल डुण्डास की पुस्तक ‘द जैनम’ में इस जैन मंदिर का स्पष्ट उल्लेख है। उसमें लिखा है कि 12वीं सदी में कन्नड़ कवि ब्रह्मशिवा, जिसे जैनों की, वैभवशाली संस्कृति फूटी आंख नहीं सुहाती थी, उसने हिंदूज्म को बढ़ाया और कोल्हापुर के चन्द्रप्रभा के इस मंदिर को हिंदू देवी महालक्ष्मी में परिवर्तित कर दिया। ब्रह्मशिवा पहले शैव था, बच्चे सूर्य भगवान को मानने वाले थे। सब जगह प्रचलित जैन धर्म जैसे दक्षिण में कमजोर किया गया, जो इतिहास आज भी जैन गौरव में काला अध्याय है, तब इसको भी बदल दिया गया।
यहां विभिन्न आकारों के 35 मंदिर हैं। यहां 5 हेमाड शैली के शीर्ष और एक गरुण मंडप है। 11वीं सदी से जब इसका हिंदू रूप से विस्तार हुआ, तो वह जैन मंदिर इस पूरे का एक सिमटा हुआ हिस्सा रह गया। कहा जा सकता है, आज से 1000-1200 साल पहले यह एक छोटे रूप में वैभवशाली जैन मंदिर रहा होगा, जिसकी प्राचीनता पूर्वी द्वार से स्पष्ट झलकती है। यहीं पर एक खम्बे पर प्राचीन भाषा में लिखा एक अभिलेख भी आचार्य श्री विशुद्ध सागरजी ने देखा, जिसको पढ़ा जाना शेष है।
अगर इस मंदिर को पूरी तरह कोई खोजी शोधकर्ता देखें, तो यहां और भी अनेक प्रमाण इन जीवंत पत्थरों में दिख जायेंगे। इसकी पूरी जानकारी यू-ट्यूब चैनल महालक्ष्मी के एपिसोड न. 2599 – ‘महालक्ष्मी मंदिर में 67 जैन भगवान क्यों?’ में देख सकते हैं।
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