जैन-दर्शन की स्पष्ट मान्यता है कि देवी-देवता किसी को कुछ नहीं देते । जो कुछ मिलता है, वह अपने पुण्य से ही मिलता है । कोई भी शक्ति केवल निमित्त बन जाती है । उसे मुफ्त में ही श्रेय मिल जाता है ।
व्यक्ति का पूण्य ही बलवान है । कोई किसी को कुछ दे नहीं सकता । न कोई किसीकी सुखना पूरी करता है और न मनौती । जिसका पूण्य होगा उसकी सुखना भी पूरी हो जाती है और मनौती भी । उसमें संयोग या निमित्त के रूप में देवी-देवता या फिर अन्य कोई भी हो सकता है ।
इसिहास में बहुत से प्रसंग मिलते है जहां पुण्यशाली आत्माओं को भी घोर कष्टों का सामना करना पड़ा, किन्तु कोई देवी-देवता उनकी रक्षा के लिए नहीं आया ।
सीता सती को जब रावण ले जा रहा था तो किसी भी देव ने उनकी रक्षा नहीं की , अंततः अपने ही पूण्य का उदय हुआ तो लंका विजय करके राम ने सीता को प्राप्त किया ।
द्वारिका नगरी जली तो कोई देवता उसे बचा नहीं सका, जबकि द्वारिका तो देवताओं ने ही बसाई थी ।
सनत्कुमार चक्रवर्ती की सेवा में १६००० देव हाजिर रहते थे, फिर भी उनके शरीर में जब रोग आये तो कोई भी देव उन रोगों से उनकी रक्षा न कर सका ।
ऐसे ही चंदना, सुभद्रा आदि सतियों के उदहारण मिलते है ।
अंततः व्यक्ति का अपना ही पूण्य और पुरुषार्थ काम आता है ।