नाम के लिए दिया गया दान, दान नहीं मान है –संस्मरण- आचार्य श्री विद्यासागर जी

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शीतकाल में भोजपुर क्षेत्र पर सारा संघ विराजमान था। प्रकृति के बीचों-बीच श्री शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरनाथ भगवान का मंदिर है। मंदिर प्रांगण से ही लगा हुआ जंगल है, बहुत विशाल-विशाल चट्टानें हैं। चारो ओर हरियाली ही हरियाली नजर आती है। वहाँ बैठते ही ध्यान लग जाता है, ध्यान लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। वहीं जिनालय से कुछ दूरी पर एक दो मंजिल का महल है, जो खण्डहर हो चुका है। उसमें आज भी सुंदर कलाकृति बनी हुई हैं। एक दिन आचार्य महाराज भी उस कलाकृति को देख रहे थे उन्होंने कहा- इतना विशाल महल, इतनी अच्छी कलाकृति किसने बनवायी होगी, उसका कहीं नाम तक नहीं लिखा। “आज लोग मंदिर की दो सीढ़ियाँ लगवा देते हैं तो अपना नाम लिखवा देते हैं पर इस महल को किसने बनवाया नाम ही नहीं रहा और वे भी नहीं रहे।” और बारह भावना की पंक्ति पढ़ने लगे “कहाँ गये चक्री जिन जीता, भरत खण्ड सारा”।

सच बात है महान चक्रवर्ती छ: खण्ड के अधिपति का भी नाम नहीं रहा, वे भी चले गये, फिर भी आज प्राणी अपने नाम के लिए दान करता है। ध्यान रखो-नाम के लिए दिया गया दान, दान नहीं मान है। दान में समर्पण के भाव होना चाहिए, प्रतिफल की आकांक्षा नहीं रखना चाहिए। दान करने से दान का लोभ कम होगा लेकिन नाम का लोभ बढ़ गया और नाम की कामना से मान कषाय भी बढ़ गयी इसलिए जिससे कषाय का त्याग हो वही सही त्याग माना जाता है जिससे कषाय में वृद्धि हो वह दान नहीं माना जा सकता।
– संकलन – रजत जैन भिलाई