03 जुलाई, गुरु को समर्पण, गुणगान की पूर्णिमा : गुरु के प्रति समर्पण का दिन, क्या है ऐसा हमारे पास, जो उनके चरणों में अर्पण कर सकें। न पैसा चाहिये, न कोई वस्तु, न कभी हाथ बढ़ाते हैं

0
755

जीवन में मिलते कई गुरु,असली जीवन कौन करे शुरु?
जिसके जीवन में गुरु नहीं, उसका जीवन अभी शुरु नहीं

01 जुलाई 2023/ आषाढ़ शुक्ल त्रयोदिशि /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/ EXCLUSIVE/शरद जैन

पूर्णिमा आषाढ़ का चांद जब पूरा खिले।
पहली किरण से सूरज भी गुरु वंदना करे।।

जी हां! जैसे ही वर्षा ऋतु के आगमन की दस्तक के साथ आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी को श्रमण अपने विहार को नियंत्रित कर देते हैं, अगले चार माह के लिये (इस बार श्रावण अधिमास होने से वर्षायोग 5 माह का है) बस उसके अगले ही दिन पूर्णिमा के रूप में गुरु के वंदन का दिन आ जाता है।
सही कहा है कि किसी का जीवन तभी सफलता की सीढ़ियां चढ़ता है, जब उसके जीवन में गुरु रूपी प्रकाश पुंज साथ होता है। व्यक्ति धार्मिक हो, सामाजिक हो, नेता हो चाहे, अभिनेता हो, करोड़पति हो या अरबपति या फिर कोई साधारण या आसाधारण व्यक्तित्व वाला ही क्यों ना हो, बिना गुरु के जीवन की विभिन्न चरणों में शुरूआत सही प्रकार से नहीं होती। कहा भी है – जिसके जीवन में गुरु नहीं, उसका जीवन शुरू नहीं।

गुरु की शुरुआत जन्म के साथ ही – ‘मां’

गर्भ में आते ही गुरुपने की शुरूआत मां से हो जाती है। जैसा उसका आचार-विचार, वैसे मिलते गर्भ में ही संस्कार। आज मां गर्भावस्था के दौरान टीवी-मोबाइल नहीं छोड़ती, तो बच्चा दूध भी मोबाइल पकड़े बिना पीना शुरू नहीं करता। अभिमन्यु का चक्रव्यूह में प्रवेश का ज्ञान गर्भ में ही मिला था और तोड़ना सीख नहीं पाया, क्योंकि द्रोपदी की आंख लग गई थी। ये सब जानकर भी, आजकल की मातायें कोई शिक्षा ग्रहण नहीं करती। ‘मां’ शब्द में चाहे डेढ़ अक्षर हो, पर जीवन रूपी महल की नींव वही बनता है। कच्ची मिट्टी जैसा बचपन होता है और उसको कलश, मटका, कटोरा या पैरों को ठोकर खाता रोड़ा, कुछ भी बनाने की जिम्मेदारी कुम्हार रूपी मां को ही निभानी होती है। बीज को अंकुरित कर, संस्कारों का रोपण करने वाला पहला गुरु ‘मां’ ही होती है।

मुंह में जुबान, पैरों में जान आते ही
लौकिक शिक्षा के दूसरे नं. के गुरु ‘टीचर’

6-7 साल की उम्र में प्ले स्कूल में उठना-बैठना, मां-बाप के लाड़ से अलग रहने की आदत डाल लेता है नन्हा शिशु और फिर चरण बद्ध रूप से लौकिक गुरु उसके जीवन में अलग-अलग सीढ़ी पर आते रहते हैं। इस दुनिया में रहना, बढ़ना सीखते हैं, संसार को उसके जीवन में उतार देते हैं। यही वह समय होता है, वह सच-झूठ, काला-सफेद, सीधा-टेढ़ा, शरीफ-बदमाश, ऊंच-नीच, प्यार-दुश्मनी के पहाड़े बखूबी सीख जाता है। वह साइन थीटा, कोस थीटा, पाइथागोरस फार्मूला, वो सब भी सीखता है, जो पढ़ाई खत्म होते ही जीवन से छूट जाता है। पर आर्थिक शास्त्र, इतिहास, भूगोल के साथ बायोलोजी में जीवन की संरचना, कैमिस्ट्री में तत्वों की सांसारिक रचना का पाठ भी सीखता है।
मां द्वारा डाली गई नींव पर महल का ढांचा बनाने का यही समय होता है। जिम्मेदारी की सीढ़ियां चढ़ते वह संसार की बारीकियां जानता है, उसमें अपने को ढालने, जरूरतों की शुरूआती आपूर्ति के रास्ते खोजता है। कुछ पर इसी समय जिम्मेदारियों का पिटारा सिर पर आ जाता है। अब समय के साथ भागम-भाग, कमाई के लिये टेबल के ऊपर और नीचे का वजन, पेट के साथ पेटी भरने का शुरूआती कला, में वैसे इन गुरुओं की आवश्यकता नहीं होती, वो दोस्तों, आसपास के लोगों से बखूबी, साइड से सीखता है और यहीं पर उसकी उम्र 8 से 25-30 साल तक कब पहुंच जाती है, पता ही नहीं चलता।
अगर इस समय जीवन रूपी नहर एक तरफ मां-बाप के तट और दूसरी तरफ लौकिक शिक्षकों के दूसरे तट के बीच अगर संयम रूपी किश्ती में चलती रहे, तो आगे की मंजिल आसान हो जाती है, वरना किसी भी तट को तोड़ते बढ़ने से भटक कर उलझ जाती है। लड़खड़ा जाता है, फिर लाख संभालो, संभलता नहीं और भटक जाता है, इतना रास्ते में भटकता है, कि जीवन के तीसरे पड़ाव में जरूरी ‘तीसरे गुरु’ तक पहुंच भी नहीं पाता।

जीवन के दूसरे पड़ाव से गुजरते
जरूरत तीसरे आवश्यक गुरु की


लौकिक शिक्षा से पैरों पर खड़े होने की ताकत और दोस्त, पड़ोसी जाने-अनजानों के बीच उलझते-सुलझते जरूरत पड़ती है तीसरे गुरु की। अगर इन गुरु की अंगुली बचपन में ही पकड़ने को मिल जाये तो सोने पर सुहागा। जिसको मिली, वो कभी भटक नहीं सकता। संसार की चकाचौंध भी उसको उलझा नहीं सकती, वह कभी फिसल नहीं सकता। लौकिक शिक्षा के साथ ढांचा तो खड़ा कर लेता है, पर उसको आकार झोपड़ी का दे या महल का, यहां तीसरे गुरु के आशीर्वाद की जरूरत होती है और उस आशीर्वाद की पहली शर्त है ‘सच्चे गुरु की पहचान’ और उसके प्रति उमड़ता अनवरत वात्सल्य, भक्ति, श्रद्धा।
ये अलौकिक मार्ग के गुरु जिसे हमसे कोई आशा नहीं होती, कोई परिग्रह नहीं रखता, कोई सांसारिक आकांक्षा नहीं, बदले में पाने का कोई भाव तक नहीं, ठीक सूरज की तरह जो तपन और रोशनी दोनों देता है, पर कुछ नहीं चाहता। उमड़ते बादल, जो जल बरसाते हैं,पर हमसे कुछ अपेक्षा नहीं रखते। ऐसे ही गुरुवर, जो तारते हैं, भव-भव में भटकती नौका को उस पार लगाते हैं।
आज के इस भागमभाग वाली तनावमय, अशांत, बीमारियों से फुल, असंतोष भरी जिंदगी जिसमें क्रोध, मान, माया, लोभ रूपी कषायों की लार टपकती रहती है, ऐसे में यही कहते हैं
मेरे सिर पर रख दो गुरुवर, अपने ये दोनों हाथ…
बस जिस दिन कनेक्शन उनसे लग गया, आचरण को देखें, चरणों में झुक गया, फिर जीवन में क्रांति सा परिवर्तन स्वाभाविक है। आत्मसात की, बाहर से भीतर की यात्रा, वो भी बिना फीस, बिना शुल्क सिखाते हैं, इसीलिये तो कबीर ने कहा –

गुरु गोबिन्द दोनों खड़े, काके लागू पांव
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताए।

अगर परमात्मा बनने का सामर्थ्य रखने वाली आत्मा के ऊपर चढ़ी कषाय रूपी गंदगी को, भक्ति, श्रद्धा, वात्सल्य रूपी निरमा, सर्फ से ही साफ होकर विभाव से स्वभाव में आ सकती है, यह करिश्मा धर्म गुरु के द्वारा ही संभव है।
पर हां, गुरु का चयन दाल-भाजी की तरह नहीं होता। सोने-सा खरा ही पारस होता है। आचार्य श्री शांतिसागरजी की भी पहले समाज ने परीक्षा ली थी, ऐसा पढ़ने में आया है। जब आपकी डूबती नैया को खवैया उन्हें ही बनाना है तो जांच तो जरूरी है चर्या की, आचरण की, ऐसे में धर्म गुरु के लिये दिगम्बर मुनिराज का कोई विकल्प नहीं हो सकता। कहते हैं –
धन, वैभव के जिन्हें न भाये आलय हैं,
ये चारित्र के सच्चे हिमालय हैं।
मंदिर की मूर्तियां तो मौन रहती हैं,
ये गुरुवर तो चलते-फिरते हिमालय हैं।।


बस एक बार चुन लिया, फिर अपनी डोर उन्हीं के हाथ में दे दो। अपनी श्रद्धा, समर्पण में इतनी प्रगाढ़ता हो, कि कैसा भी तूफान आये, पर संयम धैर्य से ना डिगे।
ध्यान रखना, चंचला लक्ष्मी की चकाचौंध चार दिन की चांदनी के बाद अंधेरी रात को नहीं देख सकती, पर एक बार श्रद्धारूपी दीपक हृदय में जला लिया तो जीवन में अंधेरा कभी नहीं।
कोटिन चंदा उगाही, सूरज कोटि हजार।
तिमिर तो नाशे नहीं, बिन गुरु घोर अंधार।।
गुरु का हाथ सिर पर हो, अपना मस्तक उनके चरणों में हो, तो कीचड़ में भी कमल खिलने में देर नहीं लगती।

03 जुलाई, सोमवार, गुरु को समर्पण, गुणगान की पूर्णिमा

हां, गुरु के प्रति समर्पण का दिन, क्या है ऐसा हमारे पास, जो उनके चरणों में अर्पण कर सकें। न पैसा चाहिये, न कोई वस्तु, न कभी हाथ बढ़ाते हैं, केवल दिन में एक बार उनके करकमलों में शुद्ध आहार के ग्रास रख कर धन्य हो जाते हैं हम। बस अपनी मति को, श्रद्धा को, समर्पण को ‘अनमोल’ की उच्चता तक पहुंचा दें। वक्त की राहों में… सुख-दुख के कैसे भी पलों में, गुरुवर हम कभी तुम्हें भूल न पायेंगे, मेरी श्रद्धा, भक्ति, समर्पण की शक्ति से, सपने में दूंगा आवाज, आप हकीकत में चले आयेंगे। बस गुरु के चरणों से आचरण को जिस दिन पकड़ लिया, उस दिन यह अंदर की ‘रण’ स्वत: खत्म हो जाएगा। आत्मा में परमात्मा का आभास होने लगेगा।
संतों का संग सौभाग्य से मिलता है,
इनका आशीष युग-युग तक फलता है।
थाम लेते हैं हाथ जिनका गुरुवर,
बिगड़ा नसीब भी तेजी से बदलता है।।

गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर चरण वंदन, आपका नित नूतन अभिनंदन, यह डोर कभी न छूटे, संकट के समय साथ न छूटे, हाथ आपके आशीर्वाद में सदा उठे। श्रद्धा, समर्पण, भक्ति का यह जोड़ फेविकोल से भी ज्यादा मजबूत हो, बेजोड़ हो।
तेरे चरणों की धूलि, हमारे माथे का चंदन है,
हर सुबह-शाम, बस तेरा ही वंदन है, अभिनंदन है।
गुरुवर के नाम
सान्ध्य महालक्ष्मी – चैनल महालक्ष्मी का छोटा-सा पैगाम