नेमि टोंक से फिर उठी पुकार, लाडू नहीं चढ़ाओगे, फिर इस बार: 6 सालों से जैन नमिनाथ जी टोंक पर लाडू चढ़ाने से वंचित: सरकार – प्रशासन से नहीं मिलती कोई सहूलियत: 15 हजार से ज्यादा पहुंचते, अब नहीं आते हजार: क्या जैनों से यह तीर्थ खींच लेने का, अंदर ही अदंर खेल

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22 जून 2022/ आषाढ़ शुक्ल चतुर्थी/चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/ EXCLUSIVE/शरद जैन
वैसे यह पूरी दुनिया जानती है कि भारत की सरकार और यहां की राज्य सरकारें इस धर्म प्रदान देश में विभिन्न धर्मों के त्यौहारों पर बहुत ध्यान देती है, क्योंकि उनसे ही उनके वोट का दरवाजा खुलता है। देश में ही नहीं, बाहर तक उनकी सहुलियत के लिये पूरी शक्ति लगा देती है, प्रशासन को निर्देश दिये जाते हैं। अब चाहे वह मुसलमान भाइयों को मक्का मदीना भेजने की तैयारी करनी हो, या फिर सिख भाइयों को, आतंकी फसल बोने वाले पड़ोसी पाक में करतार साहिब गुरुद्वारे भेजने की तैयारी हो। बाहर से ज्यादा, देश के भीतर तो और भी ज्यादा तैयारी करती है। कर्फ्यू तक में ढील दी जाती है, सहूलियतों के पिटारे खोल दिये जाते हैं, यह बहुत ही अच्छी बात है।

पर इसी भरत चक्रवर्ती के नाम पर पड़े ‘भारत’ में उन्हीं के धर्म के पर्वों पर, एक अल्पसंख्यक समुदाय पर कहीं न कहीं तो आंख टेढ़ी की ही जाती है। हर त्यौहार पर केन्द्र शुभकामनाएं के बड़े-बड़े विज्ञापन देता है, पर तीर्थंकर महावीर स्वामी के जन्म कल्याणक पर नहीं। (केन्द्र द्वारा एक जैन पर्व को अवकाश की परिधि में रखा है, और वो भी कभी त्रयोदशी के आगे-पीछे हो, उसमें भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए। इस वर्ष भी ऐसा ही हो चुका है।)

हां, तो बात कर रहे हैं, जैनों के दूसरे सबसे बड़े तीर्थ, जूनागढ़ के गिरनार के ऊर्जयन्त शिखर की, जहां से 22वें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ जी मोक्ष गये। हां, वही दिन आषाढ़ शुक्ल सप्तमी का, जो इस वर्ष 25 जून को है, उस दिन उन्हें निर्वाण लाडू उस टोंक पर चढ़ाने की सहूलियत प्रशासन से मिलेगी, इस पर बड़ा प्रश्नचिह्न है।

वैसे आपको थोड़ा इतिहास बता दें कि पिछले छह सालों से यह पाबंदी लगी, उससे पहले ऐसा नहीं था। सन् 2018 में पहली बार यह कह कर रोक दिया कि इससे जैनों और दूसरे समुदाय के बीच तनाव बढ़ेगा, कोई अप्रिय घटना ना हो जाये, इसलिये वहां लाडू चढ़ाने की अनुमति नहीं। यह तो लगभग वैसे ही हुआ जैसे हिन्दू भाइयों को रामनवमी पर अयोध्या की रामजन्मभूमि पर जाने से रोक दें, ईद पर मुस्लिम भाइयों को जामा मस्जिद जाने से रोक दें, सिख भाइयों को गुरुनानक जयंती पर गोल्डन टेम्पल में जाने से रोक दें, कि आप वहां जाएंगे तो तनाव हो सकता है। पर ऐसा नहीं है, रोक केवल जैनियों के लिये ही है।

याद है अब भी, सान्ध्य महालक्ष्मी / चैनल महालक्ष्मी को, जब 2018 में बंडी लालजी की ओर से बहुत जोर लगाया था कि अनुमति मिल जाये। तब अनुमति मिलना तो दूर, पुलिस की छावनी बन गई वहां कि जैन लाडू लेकर ऊपर चले नहीं जाये। कई के हाथों से छीनकर लाडू फेंकने तक की बातें सुनाई दीं। ऐसा भी होता है इस धर्म प्रधान देश में, धर्मप्रिय सरकार – प्रशासन के द्वारा। उस समय 12-15 हजार जैन गये थे। पर जो वहां जाकर सरकार – प्रशासन का अनुभव मिला, जैनों की हिम्मत ही टूट गई।

2021 में तो गिनती हजार को भी नहीं छू सकी। शायद सरकार-प्रशासन अपनी चालों में कामयाब हो गये कि दो दशक में ही जैनों को अपने उस दूसरे बड़े तीर्थ से इतना दूर कर दो, कि यह नाम केवल उनकी पूजा की किताबों में ही सिमट कर रह जाये। और फिर कभी जोर लगा तो उनको भी बदलने के लिये जोर आजमाइश कर ली जाएगी कि दत्तात्रेय टोंक पर भी जैन कथित लाडू चढ़ाने जाते थे।

जो आज तक नहीं हुआ, वो पिछले 20 सालों में खूब हुआ, जहां इतिहास को बदला गया। सन् 1947 की स्थिति को पलटा गया। वोट की राजनीति में जैनों को दूध में पड़ी मक्खी के समान बाहर निकाल दिया। विश्वास कीजिए, अब तो सत्ता के बड़े नेता जैनों के कार्यक्रम में जाने से पहले यह शर्त तक लगा देते हैं कि उनसे गिरनार के बारे में कोई बात नहीं होगी। क्या गजब है, कैसी नगरी हो गई।

अब हमारी बड़ी-बड़ी कमेटियों ने भी शायद अपने हाथ खींच लिये, क्योंकि हर को अपनी दाल रोटी को भी देखना है। आज राजनीति का डंडा किस पर कब चल जाये, कुछ नहीं कहा जा सकता। वहां डंडा चलाने के लिये कई सरकारी विभाग बखूबी सजग रहते हैं।

तीर्थों की सुरक्षा में अपनी जिम्मेदारी निभाने वाली किसी कमेटी ने वहां कार्यालय खोलना तो दूर, एक कर्मचारी तक नहीं रखा। गिरनार रोपवे के उद्घाटन पर प्रधानमंत्री महोदय ने जैनों को केवल पहली टोंक के मंदिरों तक समेट कर रख दिया, और अब तो जैन कमेटियों ने भी वही तक जैसे अपना अधिकार क्षेत्र स्वीकार कर लिया, क्योंकि उसके आगे, आज तक एक रुपये का जीर्णोद्धार नहीं किया गया, न किसी कमेटी द्वारा, न ही वहां किसी धाम या धर्मशाला द्वारा, जबकि दान उसी के नाम पर दिया जाता है।

यह कड़वा सच है कि हमने ही हाथ उठा लिये। यात्रियों को कोई सुविधा नहीं पहाड़ पर। बदलते तीर्थ का कोई रिकॉर्ड नहीं। दूसरे ने पूरा पहाड़ बदल दिया, हम दूसरी टोंक (श्री अनिरुद्ध महामुनिराज) को जरा ठीक तक नहीं कर सकें।

तीर्थंकर नेमिनाथ टोंक दत्तात्रेय टोंक आंखों के सामने बना दी गई। सरकार-प्रशासन और जैन कमेटियां, गांधी जी के तीन बंदरों की तरह बस बैठे रहे कि न उधर देखना, न उस बारे में सुनना, न उसके बारे में कुछ बोलना।
इस बार तो हमारी कमेटियों ने प्रशासन को कोई चिट्ठी तक लिखने की जरूरत नहीं समझी होगी, प्रशासन भी खुश, सरकार भी खुश कि चलो अब क्या करना?

स्पष्ट लगता है कि 6 सालों का सिलसिला इस बार भी नहीं टूटेगा और जैनों को अपने दूसरे बड़े तीर्थ, गिरनार पर 22वें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ जी के मोक्ष कल्याणक पर निर्वाण लाडू चढ़ाने का सौभाग्य नहीं मिलेगा। जरूरत भी क्या है? नीचे धर्मशालाओं के मंदिरों में चढ़ा लो या फिर पहली टोंक के मंदिरों में!!!

गिरनार जैनों से क्यों छूट रहा : चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी की नजर से

दूसरा बड़ा सिद्धक्षेत्र श्री गिरनारजी, जैनों के हाथ से क्यों खिसक रहा है, कभी इस पर चिंतन किया है, शायद कभी नहीं, क्योंकि सिर्फ यह कहकर ही चुप करा दिया जाता है कि उस तीर्थ पर जैन यात्री न के बराबर जाते हैं, क्या केवल यही कारण है? नहीं। यह तो महज एक कारण है अनेक में, आइये चैनल महालक्ष्मी – सान्ध्य महालक्ष्मी के साथ चिंतन करें –

॰ अमरनाथ गुफा में शिवलिंग के दर्शन करने एक बहुल समुदाय साल में एक बार इस राज्य में जाता है, जो अधिकांशत: आतंकी घुसपैठ से तनाव में रहा, पर वह वहां के स्थानीय समुदाय ने कभी तीर्थ नहीं छीना बल्कि दर्शन के लिये पूरी केन्द्र, राज्य सरकारें, प्रशासन, सेना तक लगती है, पर क्या गिरनार पर जैनों के लिए ऐसा है? नहीं।

॰ तीर्थक्षेत्र कमेटी सहित हमारी सभी बड़ी कमेटियों की लापरवाही से आज से 65 साल पहले नेमिनाथ टोंक का सरकारी पंजीकरण दत्तात्रेय टोंक के नाम से हो गया। किसी ने कोई विरोध नहीं किया। इसका पूरा दोष उन कथित राष्ट्रीय स्तर की कमेटियों के सिर पर जाता है, पर उन्होंने कभी नहीं स्वीकारा?

॰ वैसे तो कानून है कि धार्मिक स्थलों की 1947 की स्थिति बरकरार रखी जायेगी। हकीकत में यह कानून केवल एक धर्म को सुरक्षित रखने के लिये आ रहा है, दूसरे के तीर्थों पर अपना कब्जा दिखाने के लिये अदालत का दरवाजा खुला रखा है।

॰ हकीकत में जैन एक राजनीतिक दल के पीछे लगे रहते हैं, उन्हें तो जैन उम्मीदवार तक का साथ देना नहीं आता। और उसी की सत्ता में यह खेल खुलकर खेला गया प्रशासन के सहयोग से।
॰ हमारी कमेटियों ने इस तीर्थ को कभी उतनी गंभीरता से नहीं लिया, जितना यह संवेदनशील है। यहां के लिये समाज ने आर्थिक सहयोग बहुत दिया, पर उसका एक पैसा भी पहली टोंक के आगे कभी नहीं लगा, जबकि दूसरे सम्प्रदाय ने, हमारी टोंक ही नहीं बदली, पूरे पहाड़ का रूप बदल दिया।

॰ अदालत से हित में स्टे मिलने के बावजूद उसे कार्यान्वयन करवाने में असफल रहे, क्योंकि प्रशासन व पुलिस का असहयोग, राजनीतिक विफलता व कमेटियों का पूर्ण समर्पण का अभाव मुख्य कारण है।